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लोका, लवजी ढूंढकका विचार. ( १८३ ) पटावली भी यही लिखा है । और पीछेसे लोंकेकीही परंपरामेंयह लवज भी अंदाज अढाईसोही वर्ष पहिले हुवा है, और यह मुखपर मुहपत्ति चढाना सरु किया है, सो तो तूंभी अपनी ज्ञानदीपिकामे कबुल ही कर चुकी है, किस वास्ते अब अपनी पोलको लुकाती फिरती है ? और जो लबजीने, नयामत नहीं निकाला क. हती है सो ठीक है, क्योंकि लोंकेकीही परंपरामेथा, और क्रोधी होनेसे, गुरुके साथ लडपडा, और अलग होके,मुखपर मुहपत्ति चढाने मात्रकाही अधिकपणा किया है. ॥
और जो तुं कहती है कि-न कोइ पीतांवरियोंकी तरह, अपने पोल लकोनेके वास्ते, अपने चाल चलनके अनुकूल, नये ग्रंथ बनाये है। सो भी तेरा कहना ठीकही होगा,क्योंकि क्रोधीला स्वभाववाले लवजीको, प्रथमसे ही अयोग्य समजके उनको, उनके गुरुजीने पढाया ही नहीं होगा, तो पिछे नया ग्रंथ ही क्या बना सकनेवाला था? यह तो तुमेरी परंपरा ही-वैशी चली आती है । आज वर्तमानकालमें भी देखलें तेरे ढूंढकोंमे, तूं ही थोथा पाथाको प्रगट करवायके, पंडितानी पणाको दिखारही है ? और अपनी अनेक प्रकारकी पोलको भी, लुकानेका प्रयत्न कर रही है ? ॥ परंतु-अढारे वल्याउंटना अंग वांका, कहो ढांकीये तो रहे केम ढांक्यां । तैसें' तुम दूंढकोंके भी, सर्व प्रकारके अंगोअंग बांके होनेसें, तूं एक स्त्री जाति मात्र होके, किस तशंसे ढक सकेगी ? सोतो उघड पडे विना कबी भी नहीं रहनेवालें होंगे ?
॥ और लिखती है कि यह संवेग, पीतांबर, ( लहा पंथ ) अढाईसो वर्षसे-निकला है ।। अब इसमें ढूंढनीको, न तो पंथकी,
और नतो मतकी खबर है कि, पथ किसको कहते है, और मत भी किसको कहते है । क्यों कि, यह संवेगीयोंने तो, जो जो पूर्वमें म
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