________________
( २३० ) तात्पर्य प्रकाशक दुही बावनी.
चार, नहीं करती है कि जिस जिनदत्त सूरिजी महाराजाने, अनेक जिनमंदिरों की प्रतिष्टाओ - अपने हाथसें, कराई हुई है। और ते मंदिरों, अब भी विद्यमान है । उनकी झूठी साक्षी मैं देती हुं सो कैसें चलेगी ? । परंतु तदन क्षुद्र बुद्धिवालों को इतनाभी विचार कहां ? | देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. पृ. १६७ से १७१ तक ॥ ४९ ॥
i
तप जप संयम मुनिक्रिया, भाव पूजा लहिसार । नहीं तीनको द्रव्य है, गृहीकों दोनों प्रकार ॥ ५० ॥
तात्पर्य - जिस महापुरुषने, धन पुत्रादिक सर्व संगका त्याग करके, तप जप संयमादिक, मुनिक्रियारूप भावपूजा करनेका-भंगीकार कर लिया है । उनके पास नतो द्रव्य हैं, और न द्रव्य पूजा करनेकी - आज्ञा हैं | अगर साधुपणालेके द्रव्यपूजा करें तो, द्रश्य संग्रहादिकसे, विपरीत मार्गको चलाने वाला, सिद्ध होता है । इस वास्ते साधु पुरुषोंको, द्रव्य पूजा करने का निषेध, किया है । परंतु गृहस्थ पुरुषोंने, धनादिकका त्याग नहीं किया है, और सर्वप्रकारका - आरंभकाभी, त्याग नहीं किया है। इसी वास्ते द्रव्यधर्म के साथही, भावधर्मका अधिकारी, श्रावकोंको दिखलाया है । और साधु है सोतो- केवल भावधर्मकाही अधिकारी है । देखोकि—– श्रावको है सो, अपना भाव धर्मकी प्राप्ति करलेने के वास्ते १ ढूंढक साधु ओंको रहने के वास्ते स्थानक बंधवाते है ? । २ दीक्षा महोत्सव करते है ? | और ३ साधुओंकारमरण महोत्सव भी, श्रावको ही करते है ? | और संधारी साधुको - वंदना करनेको, गाडी घोडे
;
१ दीक्षा महोत्सव | २ मरण महोत्सव | यह दोनो प्रकारकी जो श्रावक भक्ति करते है सो - साबुका द्रव्य निक्षेपकी ही भक्ति है !!
1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org