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ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य.
( १३ )
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तो पिछे पीतांबरीयोंने, मूर्त्तिमें परमेश्वरकी कल्पना किई है, यह कैसें सिद्ध करके दिखलाती है । क्योंकि मंदिर, मूर्त्तियतो, हजारो वर्ष के बने हुये है | और चारोवर्ण ( जाति) के लोक, पना अपना उपादेयकी - मूर्त्तियों को, मान दे रहे है, तो क्या ढूँढ़नीजीको, एक पीतवस्त्र वालेही दिखलाई दिये ?
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( १७ ) टष्ट, १३९ में – सूत्रका - अर्थ है, सोभी ढूंढनी | और- नियुक्तियां है, सोभी ढूंढनीही है । और सूत्रोंकी - भाष्य, है सोभी ढूंढनीजी | अपने आप बनी जाती हुई, कहती है कि-तुम्हारे मदोन्मत्तों की तरह, मिथ्याभिके, सिद्ध करने के लिये, उलटे कल्पित अर्थ रूप, गोले गरडाने के लिये, निर्युक्ति नामसें, बडेबडे पोथे, बनाररूखे है, क्या उन्हे धरके हम बांचे ? । इत्यादि ।। ११ ।।
पाठकगण ! चतुर्दश पूर्व घर, किजो श्रुत केवली भद्र बाहु स्वामीजी हैं उनकी रची हुई, नियंत्रित अर्थ वाली, निर्युक्तियां, सो तो कल्पित अर्थके गोले, ॥ और अगडं बगडं लिख के, मूढों में पंडितानी बनने वाली, आजकलकी जन्मी हुई, जो ढूंढनीजी हैं, उनके वचन, सो तो यथार्थ - नियुक्तियां और यथार्थ - भाष्य अहो क्या अपूर्व चातुरी, मूढों के आगे प्रगट करके दिखलाती है ? ॥
(१८) पृष्ट. १४४ में - लिखती है कि मूर्तिपूजा के, उपदेशको, कुमार्ग में गेरनेवाले है ॥ १८ ॥
सूत्रार्थके अंत में, यह अर्थ, जो ढूंढनीजीने लिखा है सो, केवल मनः कल्पित, जूठ पणे लिखा है ।।
(१८ ) . ११९ में - लिखती है कि मूर्ति पूजा, मिथ्याव, और, अनंत संसारका हेतु ॥ १९ ॥
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