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ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप.. (५५) अब पृष्ट. १९४ सें-कयबलि कम्मा, के पाठसें, जिन प्रतियाका पूजन-दररोज, करनेका, वीर भगवानके परम श्रावकोंकाहित, और-कल्याण, होनेके वास्ते, जैन सिद्धांतकारोंने, जगें जगेंपर-लिखा है।
उस विषयमें, पृष्ट. १२६ में-टीकाकार, टब्बाकार, सर्व जैनाचार्योंको-निंदती हुई, ढूंढनीजी-ते परम श्रावकोंकी-पाससे, मिथ्यात्वी-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-जड स्वरूपकी, मूर्तिका पूजन, दररोज, न जाने-किस लाभके वास्ते, कराती है इसबातका खुलासा ढूंढनीने लिखा हुवा नहीं है, सो ढूंढनीजीकोही, पुछ लेना॥
ऐसें जगें जगें पर लाभकी प्राप्तिसे-साधकपणा, और हा. निसें-बाधकपणा, गपड सपड लिखके, दिखाती है । तोभी सत्यार्थ पृष्ट. ९ में-दोनों निक्षेप, अवस्तु, कल्पना रूप-लिखती है। तो क्या यहसब, अपना हाथसे-लिखी हुई, अनेक प्रकारकी मूर्तियां, अनेक प्रकार का-कार्यमें, साधक बाधक स्वरूपकी ढूंढनीजीको दिखलाई दिई नहीं, जो कल्पना स्वरूपकी ही, ठहराती है ?
फिर-सत्यार्थ पृष्ट. ६१ सें-देखो, ढूंढनीजीने यह लिखा है कि-हमने भी-बडे बडे पंडित, जो विशेषकर भक्ति अंगको, मुख्य रस्वते है, उन्हों से सुना है कि-यावत्काल-ज्ञान नहीं, तावत्काल मूर्ति पूजन है । और-कई जगह, लिखा भी देखनेमें, आया हैं। ____अब इस लेखमें भी-ख्याल करोकि, तीर्थंकरोंकी भक्ति करनेकी, इछ। वाले-श्रावकोंको, जिन मूतिकी-पूजा, जैन के सिद्धांतोसें सिद्धरूप, है, या नहीं ? । जब तीर्थंकरोंके मूर्तिकी पूजा, .. जैनके सिद्धांतोंसें, ढूंढनीजीके लेखसे ही-सिद्धरूप है, तो पिछे सत्यार्थ पृष्ट. १२४ से कयबलिकम्मा, के पाठमें-जिन मूर्तिका अर्थको-छोड करके, पृष्ट. १२६ में दोकाकार, और दब्बाकार सर्व
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