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(५४) ढूंढनीनीका-रस्थापना निशेष. केवल-दोषही, होनेका, मान्या है वैसा नहीं है । किंतु-लाभकी प्राप्तिमी, मानी हुई है । इस वास्ते ही हमतुमको दूसरी आंखसें, देखनेकी भलामण, करते है ॥ सो ख्याल पूर्वक, देखना ।।
. प्रथम देखो, सत्यार्थ पृष्ट. ७३ में-पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी, जह स्वरूपकी-मूर्तियांसें, धन, पुत्रादिकका-लाभको, करवाती हुई हूं. . ढनीजी साधकपणाकी सिद्धि करके, दिखलाती है या नहीं ?॥ . ____ और सत्यार्थ पृष्ट. ९० सें-द्रौपदीजीकी, जिन प्रतिमाका-पू
जनमें, अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्कों करके, पृष्ट. ९८ में-स्त्रमति • कल्पनासें वरका लाभके वास्ते, कामदेवकी-मत्तिपूजाको, दिखः लाती हुई, यह ढूंढनीनी-जड स्वरूपकी, मूर्तिको, वर प्राप्तिका साधकरूप, ठहराती है या नहीं ?
फिर देखो पृष्ट. ४० में-वन करण राजाने, अंगूठीमें-वामुपूज्य, तीर्थकरकी मूर्ति को, रखीथी । उस मूर्ति लाभ, यह साधकपणा, या हानि, यह बोधकपणा, दोनोंमेंसें-एक तो, ढूंढनी को भी-पान्य ही, करना पडेगा । जैनोंने तो-लाभ के वास्ते ही, मानी
फिर देखो पृष्ट. ३९ में-मल्लदिन कुमारने, मल्लि-कुमारीकीमूर्तिको, देखके-लज्जा पाई, अदब उठाया, चित्रकारके परक्रोध, किया ।
इहां परभी-जड स्वरूपकी मूर्ति में, लाभ, और हानि, दोनों भी-ढूंडनीजीको भी, माननी ही पडेगी।
फिर देखो पृष्ट. ४२ में-मित्रकी मूर्तिसें, प्रेम, जागता है । लडपडे तो, उसी ही मूर्तिसें-क्रोध, जागता है ।। __इहां परभी, जड स्वरूपकी मूर्ति--लाभ, या हानि, दूंढनीजीको भी-पाननी ही, पडेगी॥
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