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मूर्चिका पूजन नही. (८१) 'मूत्तिका पूजन' नहीं मानते है. वैसा कहकर एक-दृष्टांत दिया है कि
ढूंदनीवहुको, सासु-मंदिर, ले चली, उहां शेरको देखके बहु, सासुको समजानेके लिये-गिर पड़ी. और कहने लगी, यह मेरेकोखा लेंगे. सासुने कहा यह तो पत्थरका-आकार है, नहि खा सक्ते, आगे वहु-एक गौ पास वछा है, वैसी पत्थरकी गौ देख-दोहने लगी. सासने कहा, यह दुधकी-आशा पूरण न करेगी. आगे देवकी मूर्तिको जुक २ सीस निवाती सासु, बहुकोभी कहने लगी, तूं क्यों शीस नही निवाती-तब वहु.
छप्पा. कहकर, सासुको समजाने लगी. पर्वतसे पाषाण फोडकर-सिला जो लाये, बनी गौ, और सिंह, तीसरे हरी पधराये; गौ जो देवे दुध, सिंह जो उठकर मारे, दोनों बातें सत्य होय, तो हरी निस्तारे; तीनोका कारण एक है, फल कार्य कहे दोय;
दोनों वाले जूठ है, तो एक सत्य किम होय. सासु लाजबाब हुई, घरको आई, फिर-मंदिरको न गई.
समीक्षा-शेरकी मूर्ति, उठकर मारती नहीं है. और गौकी मूर्ति, न दुध देती है, । तैसें-जिनप्रतिमा, न तार सकेगी। यह तेरी बातभी मान लेवे । तो क्या शेर २ ऐसा-नामका उच्चारण करतेके साथ-शेर आके, तेरी और तेरे सेवकोकी-मिट्टीतो खराब करता ही होगा ? और-गौ, गौका, पुकार करनेकेही साथ-दुधका मटका भी, भरही जाता होगा ? तूं कहेंगी, कि, शेरकान्नाम उच्चारण कर
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