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जगोपर बैठ क्यों नही रहते हो ?
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और भगवानको, एकेंद्रिपणा कैसे कहती है ? तूं कहेगी. हम तो - मूर्तिको एकेंद्रि कहते है || हे सुमतिनी ! उसमें एकेंद्रिपणा है कहां, सोतो वीतरागदेवकी - आकृति है । और जो धूपादिक, करते है सो तो--भक्तिका अंग है. क्योंकि भगवान् साक्षात् विराजतेथे, तभी भक्तजनो--धूपादिक, करतेही थे। और भोगभी कुछ भगवानको नही करते है, सोतो उनके नामपै- खेराद करते है । हार श्रृंगारादि करते है सोभी, हमारा भावकी - वृद्धि के वास्तेही करते है. कुछ भगवान् के वास्ते नही करते है. जैसें साक्षात् भगवान् विचरतेथे, तबभी--समवसरणकी रचना, और भूमिकी पवित्रता, विगरे देवतादिक करतेथे, सो कुछ भगवानके वास्ते नही करते थे. तैसें यहभी हम लोक- हमाराही कल्याणके वास्ते करते है. तो पिछे भगवान् के वास्ते किया, वैसा क्यौं सोर मचाती है ? जो समवसरणादिक, भगवान् के वास्ते होताथा, वैसा कहेंगी तो, तूंही कलंकित होगी. कुछ भगवान् कलंकित न होंगे.
मूर्त्तिको वंदना नही.
और साधु श्रावक पूजीनाही, यह जो कहा है सौभी अयोग्य पका ही है, क्योंकि साधुको -- मूर्त्ति पूजनेका, अधिकारही नही है. और श्रावको तो- हजारो वरससे पूजते आते है. और पूजतेभी है. तूम अज्ञोंको दिखे नाही हमभी करे क्या. ॥
इति मूर्त्तिका - वंदना विचार ||
|| अब मूर्तिको पूजन विचार ||
ढूंढनी - पृष्ट ४४ ओ. १४ से हम मूर्ति, मानते है, परंतु
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