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मूर्त्तिको वंदना नही.
(७९)
रीस क्या । जीत बिहारी कुल आचारी, धर्म रीत क्या, ॥ ताक थइया ४ ।। इति.
समीक्षा - धर्मकी प्राप्तिको प्राप्त होनेवाले जीव, वीतराग भग. वानकी मूर्तिका देखके तो, सभी खून हो जाते है, केवल निर्भाग्य शेखरोंकी हां खुशी होती न होगा। और वंदना, नमस्कार भी करना उचित ही है. क्यों कि जब हम भगवान्का, नामके वर्ण मात्रको उच्चारण करके नमस्कार करते है. तो पिछे उनकी - वैराग्य मुद्रामयी, परम शांत मूर्त्तिको, देखके, नमस्कार करनेमें हमको क्या हरकत आति है ? जो तूं कुतकों से पेट फूगाती है। जिनका नाम मात्र, हमारा - वंदनाय है, तो उनकी मूर्ति, वंदनीय क्यौं न होगी ? | और जो फल फलादि चढाते है. सो तो उस भगवान् के नामसें-- खेराद करते है. 11. जैसे-आगे राजा लोको, भगवान्का नाम मात्रको सुनेकी साथ, मुकट विना सर्व अलंकार खेराद कर देतथे । तैसें हमभी हमारी शक्ति मुजन, प्रथम भेटके अवसर में, खराद करते है, । और जिनको खानेको हो न होगा, तो वह खेराद भी क्या करेंगा ?
और तूं लिखती है कि कूक पाडे सुनता नाही रागरंग क्या. इत्यादि. यहभी समज विनाका बकवाद है । क्योंकि पृष्ट ४८ ओ. ३ - तूंही लिखती हैं कि गुणियों के नाम, गुण सहित लेने से ( भजन करने से ) महा फल होता है, अर्थात् ज्ञानादिक कर्म क्षय होते है.
और इंटक लोकोभी बडा तडके ( पिछली रात से ) उठकर -- तवन, सज्जाय, पढकर कूका पडते है. तो पिछे कैसे कहती है, कि कूक पाइनेसे सुनवग्रही नहीं, जो ऐसाही है तो तुम मौनकर, एक
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