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मूढताका त्यागी सो कल्याणकापात्र.
( २५५ )
धीवर केरी जालमें, फसें मछ जइ गूढ ॥ २ ॥ सारासार विचार विन, घ्राण विषय में मस्त | फसें भमर ही कमलमें, सूर्य होय जब अस्त ॥ ३ ॥ सारासार विचार विन, चक्षु विषयमें अंध । पडें पतंग जइ दीपमें, सबल करमका बंध ॥ ४ ॥ सारासार विचार विन, श्रोत्र विषयमें लीन । पापी जनके हाथसुं, मोत बिन मरें हरिण ॥ ५ ॥ मानवरों रावण थयो, कर्यो न सार विचार | अंते मरी नरके गयो, लोके को गमार ॥ ६ ॥ मूढ बनी दुर्योधने, पांडवपर कियो क्रोध । सर्वनाश अपनो कियो, लियो न कृष्णसुबोध ॥ ७ ॥ लुंटे धन और धरमको, मनके महा मलीन । लिखें बकें जूनुं सदा, जाणो चतुर परवीण ॥ ८ ॥ सहज वस्तुको निंदतां, बंधे पातक घोर । जिन मूरतिकी निंदना, सो संसार अघोर ॥ दया मूढ के योगसें, मत निंदो जिन राज । मूरति भव समुद्रसें, पार उतारण जाज ॥ १० ॥ मित्र मूढ योगी हुवो, न कियो सार विचार | कंकण पीतलका लिया, किई ठगाई सुनार ॥ ११ ॥
९ ॥
तैसेही - वीतरागी मूर्त्तिकी भक्तिसें भडकने वाले, हमारे ढूंढक भाइओके पंथ, प्रामाणिक दया माताका राज्य तो नहीं है, किंतु
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