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(२२२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. मूर्तिकी स्थापना निक्षेपरूप, जड स्वरूपकी पूजा कराती हुई। और पूजा करनेवालोंको-धन पुत्रादिक, दिवावती हुई । ते निरर्थकरूप दूसरा निक्षेपसें-स्वार्थकी सिद्धि करानेको, क्यौं तत्पर हुई ?। .
जब स्वार्थकी सिद्धि कराती है तो पिछे-स्थापना निक्षेपरूप मूर्ति, निरर्थ क्यूं ? । इहांपर-यक्षादिकोंकी मूर्ति पूजासें, धनपुत्रादिक-दिवाती हुई । और अपना भवोभवका कल्याणके वास्तेपूजा करनेवाली, परमश्राविका द्रौपदीजीके-जिन प्रतिमाका पूजनको छुडवायके, काम देवकी मूर्ति पूजाको कराती हुई । स्वार्थकी सिद्धि करानेको तत्पर होती है ?। ____ और जिस तीर्थकरोंके नामसे पेट भराई करती है, उनोंकी भव्य मूर्तियांको-पथ्यर, पहाड करके, निंदती है ? । ऐसें निकृष्ट बुद्धिवाले ते दूसरे कौन होंगे ? । और हम भी कहांतक शिक्षा देवेगे ? ॥ ३९ ॥ कयबलिकम्मा पाठमें, पितर दादेयां भूत । तीर्थकरके भक्तको, नितपूजा कपुत ॥ ४० ॥
तात्पर्य-सत्यार्थ. १२४ में, कयबलिकम्मा, का पाठ-ढूंढ. नीजीने लिखा है, और इस पाठके संकेत सें, वीर भगवानके परम श्रावकोंकी-जिन मूर्तिपूजा, दररोज करनेका-मतलब, सर्व जैना. चार्योने दिखाया हुवा है । उस विषयमें ढूंढनीजी, अनेक प्रकारकी जूठी कुतकों करती हुई । और तीर्थंकरोंकी-भव्य मूर्तिका, सर्वथा प्रकारसें-लोप करती हुई । ते परम श्रावकोंकी पाससें, सत्यार्थ. पृ. १२६ में-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक-मिथ्यात्वी देवताओंकी, भयंकर मूर्तियांको दररोज पूजानेको, तत्पर हुई है ? कैसें २ जैन
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