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'कयवलि कम्पा में, विचार. (११५ ) फिर लिखती है कि-घरका देवतो-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादि । तीर्थकर देवतो-त्रिलोकी नाथ, होते है । हे ढंढनी तूं क्या नित्य कर्तव्यके लिये, ते परम श्रावकोको-पितर, दादेयां, भुत, यक्षादिककी, पूजा दिखाती है ? । प्रथमही देखकि, वर्तमानकालके ढूंढको, मलीन रूप बने हुयें-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादि-नित्य पूजते है ? जो तूं उस उत्तम महा श्रावको कीपास–पितर, भूत, यक्षादि, दररोज पूजाती है ? ।। फिर कहती है कि-तीर्थकर देवतो, त्रिलोकी नाथ, होते है, घरके देव नही ।। है सुमतिनी ! त्रिलोकी नाथ है जबीही ते परम श्रावको, अपणे घरमें, महा मंगल स्वरूप मूर्तिको-पधरायके, सदाही उनकी सेवामें तत्पर रहते है, दूसरे देवोंकी उनकों-गर्नही क्या है ? जोतूं अपणा पंडितानी पणा प्रगट करके बकबाद करती है ? । फिर लिखती है कि-सहाय वांछना, कुछ और है, और कुलदेवका-मानना, संसार खातेमें-कुछ और होता है. ॥
हे शुद्ध मतिनी ! तेरे दूंढक सेवकोंकी पाससें, तूं भूत, यक्षादि, नतो-स्वर्ग, मोक्षादिकके वास्ते-पूजाती है, और न तो कोई कार्यकी सिद्धिके वास्ते, पूजाती है, तो फिर कौनसा तेरा-संसार खाताके वास्ते, पूजाती है ? सो तो दिखानाथा ? क्या अधोगतिमें पटकनेके वास्ते -भूत यक्षादि, पूजाती है ? जो-संसार खाता का, पुकार करती है ? बसकर तेरा पंडितानी पणेका विचारको ॥ फिर लिखती है कि-तुमरे ही ग्रंथोमें-२४ भगवानके शासन यक्ष, यक्षनी, लिखे है, उन्हें कौन-पूनता है इत्यर्थः।। हे सुमतिनी ! तूं यह-चकचादही, क्या कररही है, इस लेखो तो, तेरीही कुतर्कोका नास, हो जाता है । क्यौ कि जब वर्तमान कालमें यत् किंचित् श्रद्धावाले श्रावकों भी, सम्यक्रष्टि यक्ष, यक्षिनी, का, पूजन, विनाकारण,
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