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'कraja कम्मा' में, विचार.
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दररोज नहीं करते है, तोफिर पवित्र कालके - -ते महा श्रावको कि पाससें, मिथ्यादृष्टि-- पितर, दादेयां भूत, यक्षादिक-तूं कैसे पूजाती है ? | और टीका, टव्त्राकार महा पुरुषोंका, किया हुवा अर्थसे — निरपेक्ष होके, यह ढूंढनी - ऐसा बकवाद, कर रही है किजाने ते महा श्रद्धालु श्रावको थे सो दररोज भूत यक्षांदिको की ही --पूजना, करते थे ? और उनकाही पूजनकी सिद्धि करने को - यह थोथा पोथा लिखके अपणी पंडितानीपणा करतीचली जातीहो ! ॥ और यही ढूंढनी, राय प्रश्नीय संबंधी कठियाराका वनमें 'बलिकर्मके पाठसे देवपूजा दिखाके, कहती है कि - उत्तम राजाओंकी घरकी देवपूजा - उडगई, ॥ हे शून्य मतिनी ! उत्तम राजाओंकी - देव पूजाकी, सिद्धिहुई कि -- उडगई ? क्योंकि - जिसको जो इष्ट देव पूजनका, नित्य कर्त्तव्यरूप है, उसका नाम - शास्त्र कारोंका संकेतसे " बलिकर्म " कहा जाता है, सो बलिकर्म, इस कठियारे - जंगलमभी करकेही, भोजन किया । अर्थात् जोदेव सेवारूप-नित्यकर्तव्यथा सो, जंगल में भी - साथही रखाथा, और उनकीही सेवा, पूजना, करके भोजन किया तैसेही— उत्तम राराओ और ते श्रावको, आदि - परम श्रद्धालुओं ने भी — वीतराग देवकी - मूर्तिका पूजनरूप, अपणा नित्य कर्त्तव्यको, किये बादही, दूसरे कर्त्तव्यों -- प्रवृति कि है | इसवास्ते ते परम श्रावकोकों, वीतराग देवकी - पूजा, नित्य कर्तव्य रूपहीथी उनकी सिद्धिही हुई है ?|| और इस लेखरूप - सूर्य की किरणोका प्रसारसें, तेरीही--कुतर्कों रूप, ओसकी बुंदे - उडजानेपर भी, जोतूं कुतर्कों रूप -- ओसकी बुंदे, टटोलती टटोलती, विपरीत पणेकी बुद्धि रूप कुंभको, भरनेकी इछा रखेगी सो ra न भरसकेगी | और निशीथादिकसें, जोतूं साधुको -पूजन विधि, और - पूजनका फल, आदिको ढूंढती है, सोभी तेरी पंडिता
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