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ढूंढक पुस्तको के निक्षेपोंका विचार. ( २१ )
चनार ग्रहण करे छे ते ) ॥
अब हम प्रथम ढूंढनीजीको पुछते है कि अरूपी गुणवाला, तीर्थंकरका अरूपी आत्मा, तूंने किस विधिसें देख लिया ? क्यों कि अरूपी आत्माको तो केवल ज्ञानी विना, दूसरा पुरुष देख सकता ही नही है ? हे ढूंढनी तूं इतना मात्र ही कह सकेगी कि जैन के सिद्धांत से हम जान सकते है, तबतो जो तूने सर्व पदार्थ के प्रथमके-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और कार्यकी सिद्धिमें उपयोग विनाके, मानेथे, उसमेंसें जैन सिद्धांत का जो प्रथमके-त्रण निक्षेप है, सो ही तीयेंकरका-अरूपी आत्माका, और सर्व पदार्थ मात्रका, ज्ञान प्राप्त करानेमें-- परमोपयोगी स्वरूपके ही हुये है । तो पिछे तूने, और तेरा ढूंढने -- जैन तत्वों को, और लोकोको, भ्रष्ट करनेके वास्ते यह क्या पथ्थर फेक मारा ? कि वस्तुके प्रथमका-त्रण निक्षेप, निर• र्थक, और कार्य की सिद्धिमें उपयोग विनाके ? तुमको इतनी अज्ञता कहाँसें माप्त हो गइ कि- जैनमार्गका सर्व तत्रोंको, विपरीत ही विपरतिपणे देखते हो ! ॥
हम भार देके कहते है कि - जब यह अनुयोगका विषय, तु. मेरे ढूंढकों को— दिशावलोकनका स्वरूप मात्रसें भी. - यथा योग्य दिखनेको लगेगा, तब तुमको तीर्थंकरकी ' मूर्त्तिका' और सर्व 'आचायोंकी 'निंदा ' करनेका प्रसंग ही, काहेको रहेगा ? परंतु गुरु द्रोही पणासें- जबरजस्त अज्ञानने, तुमको घेर लिये है । सो इ. समें किसीका उपाय नहीं है ।। इत्यलं विस्तरेण ॥
॥ इति ढूंढक जेठमलजीके पुस्तकका - निरर्थक रूप चतुर्थ.. भाव निक्षेपका, स्वरूप ॥
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