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बहवे अरिहंत चेइय. (१०३) नहीं होती है ? इहांपरही तेरी-पंडितानीपणा, वाचकवर्म समज लेवेगे ? हम कुछ विशेष लिखते नहीं है । और जो तूं लिखती है कि--मंदिर मूर्तिका विस्तार एकभी-प्रमाणिक सूत्रमें, नहीं लिखा, सोतो तेराही लेखसें तेरी अज्ञता सिद्ध करके दिखा देवेंगे.॥
॥ इति सूत्रोंका लेखमेंभी-अधिकताका, विचार ।।
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॥ अव बहवे अरिहंत चेइय प्रक्षेपका विचार ।।
ढूंढनी-पृष्ट. ७७ में. “ बहवे अरिहंत चेईय." ( यह प्रश्नके उत्तरमें ) लिखती है कि, यदि किसी २ प्रतिमें, यह पूर्वोक्त पाठभी है, तो वहां ऐसा लिखा है कि--पाठांतरे । अर्थात् कोई आचार्य ऐसे कहते है. एसा कहकर-प्रक्षेप, पणाकी सिद्धि कीइ है. ॥
समीक्षा-हे पंडितानी ! पाठांतरका अर्थ *तूंने . प्रक्षेपरूपसे समजा ? क्योंकि-उवाईजीमे तो प्रथम--' आयारवंतचेइय १, इनके बदलेमें यह " बहवे अरिहंतचेइय २, पाठांतर करके लिखा है. परंतु केवल-प्रक्षेपरूप नहीं है. और दोनों पाठोंका अर्थभी एकही जगे आके मिलता है. । प्रथम पाठका अर्थ यह है कि--आकारवालें अर्थात् सुंदर आकारवाले, वा आकार चित्र देवमंदिराणि यह अर्थ होता है । और दूसरे पाठसे-बहुत अरिहंतके मंदिरों, वैसा खुला अर्थ होता है । उस पाठको तूं प्रक्षेपरूप कहती है ? परंतु ___ * देख तेरी थोथीपोथी- इतारिये (थोडा) पृष्ट ९ में ॥ मांडले (नकसा) पृष्ट ३५ में ।। न्हु (बेटेकी बहु ) ऐसा तूंने जगें २ पर लिखाहै सो पाठ क्या प्रक्षेप' रूप के है ? ॥
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