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निक्षेप लक्षणके दूहे. (१५), ॥ कारणसें कारज सदा, सो नही त्याज्य स्वरूप। द्रव्य निक्षेप तामें कहें, सर्व तीर्थंकर भूप ॥ ३ ॥
॥ अर्थः-वस्तु मात्रकी, पूर्व अवस्था, अथवा अपर अस्था है, सोई कारणरूप " द्रव्य " है, उस द्रव्य स्वरूपको, सिद्धांतकारोंने, “ द्रव्य निक्षेपका " विषयरूप माना है, सो कुछ त्यागनेके योग्य, नही होता है, ऐसा सर्व तीर्थकरोंने कहा है ॥ और हम प्रत्यक्षपणे भी देखते है कि-भविष्यकालमें, पुत्रसे सुख पानेकी इछावाली माता, बालककी विष्टादिसें भी, घृणा ( अर्थात् बालकका तिरस्कार ) नही करती है । और अपणा पुत्रके मरण पाद भी, बडा विलाप ही करती है । अगर जो यह दोनों अवस्था, त्याज्यरूपकी होती, तब पुत्रका प्रथम अवस्थामें काहेको विष्टादि उठाती ? और मरण वाद दिलगरी भी काहेको करती? .. ..... परंतु कारणरूप द्रव्य है, सो भी उपयोग स्वरूपका है ॥ इस वास्ते तीर्थंकरोंकी भी, पूर्व अपर अवस्था है सो भी हमारे प. रम पूननिक स्वरूपकी ही है, परंतु त्याज स्वरूपंकी नही है ।
और तो क्या परंतु जो जो पुरुष, जिस जिस भाव वस्तुको चाहनेवाले है, सो सो पुरुष उस उस वस्तुका कारणरूप " द्रव्यकाभी" योग्यता प्रमाणे, आदर, सत्कार, करते हुये ही, .. हम देखते है । जैसेंकि-दीक्षा लेनेवालेका, और मृतक साधुकी देहका, जो तुम ढूंढकभी, आदर करतेहो । सोभी, साधु भावका कारणरूप " द्रव्य वस्तुका" ही करते हो । तो पिछे तीर्थकर "भगवानकी, पूर्व अपर अवस्था, आदरनीय क्यों न होगी ? हमतो यही कहते है कि-मात्र भगवानके वैरी होंगे, वही तीर्थकरोंकी
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