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________________ (९८) ढूंढकभाइयांका संसारखाता. ___ पाठकवर्ग ? हमारे ढूंढकभाइओ, दरपणमें विपरीत विचारसें देखनेवाला-अज्ञानी कुक्कुट ( कुकडा) की तरां,अपनी भूलको-नहीं देखते हुये, महान् महान् पूर्वाचार्योंका-अपूर्व अर्थ रत्नके भंडारा रूप, ग्रंथोंको-गपौडे गपौडे, कहकर निंदते है ? । कभी तो हिंसा धर्मी लिख देते है ? कभी तो मतवाल पीलानेवाले लिख देते है ? परंतु जैन धर्मके तत्त्वोंसे विमुख होके तदन बेशुद्ध बने हुये हमारे ढूंढकभाइओ, अपना अज्ञानका पडदा खोलके, जैन धर्मके शुद्ध तवोंकी तरफ-थोडीसी निघा मात्र करके भी, देखते नहीं है ? । मात्र अपना हृदयपर अज्ञानका महान् पडदा लेके, वीतराग देवकी भी निंदा । परम गुरुयांकी भी निंदा करके, जैन धर्मके तत्वोंको भी-विपरीत लिखनेमे, अपनी पंडिताइ समजते है ?। न तो अपना पूर्वका लेखका विचार करते है, न तो पिछेके लेखका विचार करते है, और जो मनमें आता है, सोही लिख मारते है ? । ऐसें निकृष्ट विचारवालोंको, हम कहां तक शिक्षा देते रहेंगे ?। अब तो कोई उनोंका ही भाग्यकी प्रबलता होनी चाहिये, तब ही पार जावेगा? इतना ही मात्र लिखके इस संसारखातेका स्वरूपकी भी समाप्ति ही करता हुं । इत्यलमति विस्तरेण ॥ ॥ इति हमारे ढूंढकमाइयांका संसारखातेका स्वरूपकी समाप्ति ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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