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द्रव्य निक्षेप सूत्र... (२३). '' इति ३ द्रव्य आवश्यकका सूत्रार्थ.
॥ अब द्रव्यनिक्षेपका तात्पर्य-यह जो " निक्षेपके " वर्णनमें । सूत्रकारकी प्रवृत्ति है सो, तीर्थंकरोंके अरूपी ज्ञानगुणका, एकैक अंशकी, मुख्यतासे ही है । इस वास्ते जिनाज्ञाका पालन करनेवाले पुरुषोंकी, जो द्रव्यनिक्षेपका स्वरूपवाली, आवश्यककी 'द्रव्य क्रिया' , है, सो भी, हमको आदरणीय स्वरूपकोही है । और उस पुरुषोंकी पूर्व अवस्था, अर्थात् दीक्षा ग्रहण करनेकी इछारूप अवस्था । अपर अवस्था, उनकी मृतक शरीर रूप अवस्था, यह दोनो प्रकारसे द्रव्यनिक्षेपका विषयरूपकी अवस्था है सो भी, हमको आदरणीयरूप ही है । इसी वास्ते हम दीक्षा महोत्सव, और उनका मरण महोत्सव, करते है । मात्र जो जिनाज्ञासें विपरीत होके, लोक रंजन क्रियाओ करते है, उस पुरुषोंका कर्तव्यको, उपादेयके स्वरूपसे व्यतिरिक्तपणे, ( अर्थात् अनुपादेयपणे ) लोकोत्तरिक नामका भेदसें निषेधी दीई है ॥ परंतु द्रव्यनिक्षेपका अनादर, नही किया है । और जो नयोंका अवतरण करके दिखाया है, सोतो जिस २ नयकी जो जो मान्यता है । सोई दिखाई है । सो भी सर्व उपादेयक स्वरूपकी ही है। परंतु निरर्थक रूपकी नही है ? । क्यों किजैनीयोंको तो, साते नयोंका स्वरूप मान्य रूप ही है । और जो स्वछंद चारीयांका कर्त्तव्य, व्यतिरिक्तके भेदमें, 'लोकोत्तरिक स्वरूपसें दिखता है सो, नयोंका विषयमें दाखल नहीं हो सकता है । परंतु नया भासके रूपसें ही रहेगा । इसी वास्ते भिन्न स्वरूपसे वर्णन किया है । और विशेष यह है कि-श्रावकोकी, सम्यक्त्वकी करणी आदिलेके, बारांव्रत तककी, जो जो प्रत्यक्षका बिषयरूपकी करणी है, सो सो सर्व करणी । और साधुकी पंच महाव्रतादिक,
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