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(१४८) मूर्ति निषेधके-पाठो.
॥ अब ढूंढनी-जिन मूर्तिके निषेधमें, सूत्र पाठोंको-दिखाती है ॥
ढूंढनी-पृष्ट. १४२ से-लिखती है कि-सूत्रोंमे तो, धर्म प्रवृतिम-मूर्तिपूजाका, जिकरही-नहीं। परंतु तुह्मारे माने हुये-ग्रंथोंमेंही,निषेध है,परंतु तुह्मारे बडे सावधाचार्योंने-तुमको मूर्ति पूजाके पक्षका, हठ रूपी-नशापिला रखा है। फिर. ओ. १० से,भद्रबाहु स्वामीकृत-सोला स्वमके अधिकारसें-पंचम स्वप्नके फलमें-प्रथम पाठ लिखा है, इति प्रथमः ॥ फिर. पृष्ट. १४४ ओ. ११ से-महानिशीथ अध्ययन (३) तीसराका पाठ, इति द्वितीय।फिर,पृष्ट.१४७ विवाह चूलिया सूत्र, ९ वां पाहुडा, ८ वां उदेशाका पाठ, इति तृतीयः ॥ फिर. पृष्ट. १५० में-जिनदत्तसूारिकृत, संदेह दोलावली प्रकरणकी गाथा षष्ठी, सप्तमीका, पाठ. इतिचतुर्थः ॥ पृष्ट १५१ में, ढूंढनीका २४ अधिकारकी समाप्ति हुई.॥
समीक्षा-ढूंढनी लिखती हैं कि-सूत्रोमें तो, धर्म प्रवृत्तिमेंमूर्ति पूजाका जिकरही नहीं ॥ सोतो यहां तक किइ हुई हमारी समीक्षासेही विचारलेना । और विशेष यह है कि-जो अब बुद्धिमान गिने जाते है, सो अंग्रेजों तो, जगे जगेपर यही लिखते हैं कि-अपना ईश्वरोंकी-मूर्तिपूजाका मान,जो-जैनोने, और बौद्धोंने दियाहै, वैसा किसी भी मत वालोंने-नहीं दिया है । और आर्य समाजका संस्थापक-जो दयानंदजी है,सोभी-अपना प्रथम सत्यार्थ प्रकाशगंभी, लिख चुकेथे कि यह-मूर्तिपूजा, जैनोंसेही चली है,
और उनके मानने मुजब-उनकी मूर्ति, सिद्धभी हो सकती है. परंतु दूसरोंकी-सिद्ध, नहीं होती है ॥ वैसा हमने गुरुमुखसेहीमुनाथा । और यह ढूंढनी है सो-केवल अपना परम पूज्य, वीतराग देवसेंही द्वेष भाव धारण करके-१ श्री महानिशीथ, २उवाई,
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