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मृत्ति निषेध के पाठो.
( १४९ ) ३ उपाशकदशा, ४ ज्ञाता, ५ भगवती, आदि सूत्रों के जिनमंदिर, मूर्त्ति का, संक्षिप्तरूप मुख्य पाठार्थका, तदन विपरीतार्थ - लिखता हुई, किंचित मात्र भी विचार नहीं करती है कि मैं अपना थोथा पोथामें, अपनेही हाथसें- पृष्ट. ६१ में लिखती हूं कि हमने भी बडे बडे पंडित, जो विशेषकर - भक्ति अंगको, मुख्य रखते हैं, उन्होंनें - सुना है कि - यावत् काल - ज्ञान नहीं, तावत्काल मूर्त्तिपूजन है । और कई जगह लिखाभी देखनेमें आया है । तो अब -- वीतराग देवकी, मूर्तिपूजनका विपरीतार्थ में कैसे करती हुं ? क्या हमारे ढूंढक माईयोंके - हृदयमंसे, वीतराग देवकी भक्ति, नष्ट होगइ है ? जो ऐसें विपरीतार्थ करती है ? || फिर पूष्ट. ७३ में पूर्णभद्रादिक यक्षोंकी, पथ्थर से बनी हुई - मूर्तिपूजाको, सिद्ध करके अपने, भोंदू ढूंढकों, को--धन, दौलत, पुत्र, राज्य ऋद्धि सिद्धिको प्राप्त करवा देती है । तो पिछे जैनके मूल सिद्धांतोंकें - जिनपडिमा, अरिहंत चेइयाई, बहवे अरिहंत चेइय, आदि पाठोसे - तीर्थकरों के मंदिर, मूर्त्तिका, शुद्ध अर्थ करके, तीर्थकरोके - यक्ष यक्षणीही पाससें धन, दौलत, पुत्रादिक, की इछा - वाले ढूंढकों को वीतरागकी मूर्त्तिकी भक्ति करवायके, क्यों नहीं दिलाई देती है ? क्या ढूंढनीको तीर्थकरों की मूर्त्तिसें, कोई वैरभाव हुवा है ? ।।..
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और वीतराग देवके, परमभक्त श्रावकोंकी, नित्य- देवसेवा करने का पाठ जो- “कयबालि कम्मा" केसंकेतसे, जैन सिद्धां तोंमें जगजगें आता है, उसमें अनेक प्रकारकी कुतर्कों करके, छेवटमें-भूत, यक्ष, पितर, दादेयांका अर्थ, करती है, और ते महा aant पास भी, वीतराग देवकी मूर्ति पूजाकी भक्तिको,
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