________________
॥ सिद्धांतरूपसें-चार निक्षप. ॥ (५९) में, इंद्र पदका नामनिक्षेपसें, गूज्जरके पुत्रका हो वोधकी प्राप्ति होगी ? और पुरंदरादिक पर्याय वाची, दूसरा " नामोका " बोधकी प्राप्ति न रहेगी. परंतु गूज्जरके पुत्रमें, इंद्र पदसें नामका मिक्षेप, निरर्थक कभी न ठहरेंगा ? क्यों कि इंद्रपदके उच्चारण करनेके साथ, गूज्जरका पुत्र भी, हाजर होके, संकेतके जाननेवालेको, बोध ही कराता है. इसवास्ते जो जो वस्तुका, जो जो नामादि चार निक्षेप हैं, सो अपणी अपणी वस्तुका बोधका कारणहर होने नेसे, सार्थक रूपही है, परंतु निरर्थक रूप नहीं है, इसी वास्ते सिद्धांतकारने भी "१ नाम सच्चे। २ ठवण सच्चे ।३दव्व सच्चे । और ४ भाव सच्चे, " कहकर दिखाया है.।।
॥ और जिस वस्तुका एक निक्षेप भी असत्य अथवा निरर्थक रूपसें मानेगे सो वस्तु वस्तु स्वरूपकी ही नहीं कही जावेगी। कारण यह है कि-वस्तु स्वरूपका जो पिछान होता है सो उनके चार निक्षेपके स्वरूपसें ही होता है इस वास्ते ढूंढनीजीका लिखना ही सर्व आलजाल रूपका है.
॥ इति चार निक्षेपके विषयमें-ढूंढनीजीका ज्ञान ॥
अब जो प्रथमके लेखमें-ढूंढनीजीने इंद्रमें त्रण निक्षेप । मिशरीमें एक निक्षेप । और ऋषभदेवमें अाई निक्षेप । घटायाथा सो अब सिद्धांतका अनुसरण करके चार चार निक्षेप पुरण करके दि. खलाते है।
॥ इंद्रमें जो इंद्रनाम है, सोई नाम निक्षेष है १ । और पाषाणादिकसें इंद्रकी जो आकृति बनाई है, सो स्थापना निक्षेप है २ । और इंद्रका भवकी जो पूर्वाऽपर अस्था है, सो द्रव्य निक्षेपका वि.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org