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( १२२ )
चमरेंद्रका-पाठ.
लेके आवे ।। पृष्ठ. ११० ओ. ७ से - अरिहंत - चैत्यपद । किस पाठ से निकाला है ? इसके उत्तरमें लिखती है कि जिसपाठसे तुम मूर्ति पूजकों ने देवयं चेइयं का अर्थ - प्रतिमावत् ऐसे निकाला है. ॥
पृष्ट. ११२ ओ. १२ - वंदना तो करे प्रत्यक्ष - अरिहंतको, और कहे कि - प्रतिमाकी तरह, तो अरिहंतजी से प्रतिमा- जड, अछीरही. ॥
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समीक्षा - अब इहांवर सर्व महापुरुषोंसे, निरपेक्ष होके ढूंढनी है सो उघडपणे ठाणाको प्रकट करती है || देखोकि - अरिहंत चेइयागि, इस पदका अर्थ - अंबड परिव्राजकके विषय में सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है परिव्राजक, शाक्यादिका । और सम्यक्क व्रत | वा अणुव्रत । महाव्रतरूपधर्म | आदि कराया || और, इसी पदका अर्थ- जंघाचारण' मुनिके विषयमें - भगवानका ज्ञानकी स्तुति, दिखाईथी कि धन्य है केवल ज्ञानकी शक्ति, जिसमें सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष है | और इस चमरेंद्र के विषय में - उसी चैत्य शब्दका अर्थ- चेत्यपद, करके दिखाती है, अर्थात्- अरिहंत छद्मस्थ यतिपदमें, करके दिखातिहै | फिर प्रश्न उठाया है कि चैत्यपद, यह किस पाठसे निकाला है, तब धिडाईपणा दिखा के कहती है कि जिस पाठसे तुम मूर्तिपूजकोने - देवयं चेइयं का अर्थ-प्रतिमात्रत् ॥ ऐसे निकाला है । इसमें विचार करने का यह है कि, जो अरिहंत चेइयाणिं, शब्द ह सो, सर्वजगें पर- अरिहंतकी-प्रतिमाओका, अर्थको प्रगटपणे दिखा रहा है, उसपदका अर्थ एकजगें तो- परिव्राजक | दूसरीज - केवल ज्ञान । और, तीसरीजगें-अरिहंत - उपस्थ - यतिपद | आदि भिन्न २ पणे संबंध विनाका अर्थको प्रगट करती है । जैसें कोई पुरुष, एकजगों पर भूल जाता है, तब जगों जगों पर, गोतेंही खाता है. ॥ कहवतभी है कि-ता
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