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(९४) शाश्वती जिन प्रतिमाओ है. कर्म है, उनकोभी-छुडानेकाही उपदेश करती होगी । और दो वख्त जो-आवश्यक क्रियादि, कर्तव्यको तूं करती है, सोभी नित्य कर्तव्य होनेसे-व्यवहारिकही कर्म रहेगा । और श्रावकोकों-जीवहत्या नहीं करनी, यहभी तो श्रावकोकों कुलका-व्यवहारसेंही चली आती है. यह सब व्यवहारिक कार्यभी करनेके योग्य है, उसको क्या तूं-छुडानेका उपदेश करती है ? जो हमारा परम पूजनिक वीतरागदेवकी-मूर्तिका पूजनको, व्यवहारिक कर्म कहकर, भक्तजनोको भ्रममे गेरके छुडानेके वास्ते शोर मचा रही है ? .. तूं कहेगी कि-मुख पै मुहपत्तिका-बांधना, और हाथमें ओघा लेके-फिरना, यह तो आत्मिक धर्म है । और रात्रिभोजन श्रावकोंको नहीं करना, सोभी आत्मिक धर्मही है । वैसा कहेंगी तब तो, तेरा ही वचनसे-तेरेकु ही बाधक होता है. क्योंकि तूंही पृष्ट ६४ ओ. ४ से लिखती है कि-बहुत कहानी-क्या, ज्ञानका कारण तो, ज्ञानका अभ्यासही है । इस प्रकारका तेरे लेखसें तो-तत्त्वज्ञानके पिछेसेही-आत्मि धर्मकी प्राप्ति होनी चाहिये, तो पिछे मुहपत्ति
और ओघा ही, तेरेको-आत्मिक धर्म कैसे करादेगा ? यहभी तो . तेरा गुडियोंकाही खेल है ? तूंभी जबतक यह-व्यवहारिकरूप मुहपत्ति और ओघा-न छोडेगी तवतक कभीभी-ज्ञानिनी नहीं बनेगी? वैसे औरभी श्रावकोके-करणे योग्य कर्तव्योका, विचारभी समज लेना । परंतु इस बातमैं हम तो यह कहते है कि-जबतक रात्रि भोजन त्याग व्यवहार आदि, श्रावक कुलका आचार रहेगा,तबतक यह-जिन प्रतिमाका-पुजनभी अवश्यही रहेगा ? सोई-हित, और कल्याणकारी है । और तुंभी कहती है कि-समीटभी पुजते है, मिथ्या दृष्टिभी पुजते है । हमभी यही कहते है कि-मुहपत्ति, और औषा समष्ठिभी रखते है. मिथ्यादृष्टिभी-रखते है । तुं क
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