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शाश्वती जिन प्रतिमाओ है.
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समीक्षा तो उसके वास्ते होंगी कि, जिसका भव्यत्व निकट होगा; सोई पुरुष तीर्थकरोंसे - विपरीत वचनपै, विश्वास न करें. और आचारण पै दृढ होवे.
शुद्ध
इति सूत्रोंमें 'मूर्तिपूजा नहीका विचार ||
|| अब शाश्वती जिन प्रतिमाओंका विचार ||
ढूंढनी - पृष्ट ६९ ओ. ९ से - देव लोकोंमें तो, अकृत्रिम अर्थात् शाश्वती, बिन बनाई मूत्तिर्ये, होती है, । और देवताओका 'मूत्तिपूजन ' करना - जीत व्यवहार, अर्थात् - व्यवहारिक कर्म होता है, । कुछ सम्यग्दृष्टि, और मिथ्यादृष्टियों का नियम नहीं है । कुल रूदिवत् । समदृष्टिभी पूजते है, मिथ्यादृष्टिभी पूजते है. ॥
समीक्षा - देवलाक में जो इंद्रकी पदवीपर होते है सो तो, नियम करके - सम्यग् दृष्टिही होते है, वैसा शास्त्रकारने - नियम दिखाया है, । और वही इंद्रो, अपणा हित, और कल्याणको समजकर, 1 शाश्वती जे ' जिन प्रतिमाओ ' ( अर्थात् अरिहंतकी प्रतिमाओ ) हैं, उनका पूजन करते है । उसको ढूंढनी - कुल रूढीवत् व्यवहारिक कर्म कहती है. । भला - दुर्जनास्तुष्यंतु इति न्यायेन, तेरा मान्या हुवा, व्यवहारिकही कर्म, रहने देते है । हम पुछते है कि - करने के योग्य व्यवहारिक कर्म, कुछ - हित, और कल्याण के वास्ते होता है या नही ! | तूं कहेगी कि करनेके योग्य - व्यवहारिक कर्मसे, कुछ हित और कल्याणकी प्राप्ति, नही होती है, । वैसा कहेगी, तबतो, तूं जो मुखपै मुहपत्ति बांधके, हाथमें
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ओघा लेके - फिरती है सो ।
और श्रावकके कूल में - रात्रिभोजन नहीं करना सोभी, व्यवहारिकही
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