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(२२६ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. यूं कही पंचम स्वप्नका, करें अर्थ, विपरीत । लोभसें करनेकीमना, न समजे अवनीत ॥ ४५ ॥ - तात्पर्य-प्रथम ढूंढनीजीने यूं कहाथाकि, जिनमूर्ति पूजाका निषेध, पाठसे दिखावंगी । अब ते विषयमें प्रथम--पंचम स्वमंका पाठ लिखके, अपनी अज्ञानता प्रगट की है । क्योंकि ते पंचम स्वामके पाठमें, ऐसा लिखा है कि-दव्वा हारिणा मुनी भविस्सइ, लोभेन माला रोहण देवल उवहाणादि, कको, प्र. काश करेंगे । और ऐसे बहुतेक साधु पतित होके, अविधि पंथमें पड़ जावेंगे । इस लेखमें साधु मात्रको-लोभके वश होके, करनेका निषेध किया गया है । परंतु सर्वथा प्रकारसे करनेका अभाव नहीं दिखाया है । तो भी गुरुज्ञान बिनाकी ढूंढनीजी, सर्वथा प्रकारसें-प्रदिर मूर्तिका, निषेध करके दखलाती है ? परंतु एक बच्चे जितना भी विचार नहीं करती है कि-जगजाहिर, जिन मंदिर मूर्तिका-पूजन, सर्वथा प्रकारसें निषेध मैं कैसे करती हुँ ?
और ऐसी मेरी मूढता कैसी चलेगी? परंतु तुछ हृदयवालोंको विचार रहता नहीं है । देखो सत्यार्थ. ट. १४२ से १४४ तक ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ए. १५१ से १५५ तक ॥ ४५ ॥ . महानिशीथमें साधुको, द्रव्य पूजा नहि शुध। . सर्व निरवध मार्गका, लोप करें नहि बुध ॥ ४६ ॥ अरिहंत भगवंत पाठसु, किया मूर्तिका बोध । इसी सूत्रके पाठमें, तेरा लिखा तूं सोध ॥ ४७ ॥ . तात्पर्य-पंच महाव्रतको अंगीकार करनेवाले, द्रव्य रहित साधुको-द्रव्य पूजा करनी सो शुद्ध नहीं है । क्योंकि-साधु हुये
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