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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२५) की तरां, गर्व कितना किया है, यही हमको आश्चर्य होता है । हे ढूंढनीजी!
जैनतत्वके विषयमें आगे बहुत ही कुछ देखनेका रहा हुवा है, परंतु बुद्धिकी प्रबलता होते हुये भी, परंपराका योग्य गुरुकी सेवामें तत्पर हुये बिना, एक दिशा मात्रका भी भान होना बडाही दुर्घट है, किस वास्ते इतना जूठा गर्वको करती है ? ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ट. १३८ से १४७ तक ।। ४२ । ४३ ॥ निषेध दिखावू पाठसें, मूर्ति पजाके खास । कहैं ढूंढनी सिद्धिमें, फुकट करो क्यों आश ॥ ४४ ॥
तात्पर्य इहां तक ढूंढनीजी, यक्ष, भूतादिक-मिथ्यात्वी देव. ताभोंकी, भक्तानी होके, उनोंकी मूर्तियांका-पूजन,ढूंढक श्रावकोंको सिद्धि करके दिखलाती हुई। और तीर्थकर देवकी वैरिणी होके, तीर्थंकरोंकी-परम पवित्र, मूर्तिपूजाके-पागेका, अर्थको-जूठे जूठ लिखती हुई । और जैन धर्मके धुरंधर-सर्व महान् २ आचार्योंकी, निंद्याको करती हुई । और जैन धर्मके मंडनरूप, तत्वके ग्रंथोंका लोपको, करती हुई । सत्यार्थ पृ. १४२ मे, लिखती है कि-जिन मूर्ति पूजाका पाठ, कोइ भी जैन सूत्रमें नहीं है । परंतु तुमेरे ही ग्रंथोंके पाठसें, जिनमूर्तिकी पूजाका-निषेधरूप पाठको, दिखलाती हुँ । ऐसा उन्मत्तपणा करके, और महापुरुषोंके लेखका आशयको समजे बिना, और अपनी जूठी पंडिताइके छाकमें आई हुई, जैन सिद्धांतोंसें-सर्वथा प्रकारसें, जिन मूर्ति पू. जाको निषेध करने रूप, पाठ दिखानेको तत्पर होती है ? । ऐसें निकृष्ट बुद्धिवालोंको, हम कहांतक समजावेंगे ? । देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ए. १४८ से १५१ तक || ४४ ।।
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