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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२७ ). बाद, श्रावक धर्मकी करनीरूप-द्रव्य पूजा करें. तो, सर्वथा प्रकारसे जो निर्वद्यका मार्ग है, उसका लोप करनेसें, महा प्रायश्चितका पात्र होता है । इस वास्ते बुद्धिमान पुरुषो, ते सर्व सावधके त्याग रूप-मार्गका लोप, कभी न करें इस । वास्ते साधु पुरुषोंको हीद्रव्य पूजा करनेका, निषेध किया है। परंतु श्रावकोंको तोकयबलिकम्मादिक, पाठोंसें, अनेक जगेंपर-जिन मूर्तिकी पूजा करनेकी, हमेसां आज्ञाही दिखाई हुई है। किस वास्ते तीर्थंकरोंकी अवज्ञा करके, अनंत संसार भ्रमणका बोजाको उठाते हो ? ॥४६॥
अब इसीही सूत्रके पाठमें, थोडासा ख्याल करके देखोकिअरिहंताणं भगवंताणं, कह करके ही, तीर्थंकरोंकी-अलोकिक परमशांत मूर्तिका बोत्र, गणधर महा पुरुषोंने कराया है । परंतु इस पाठमें-प्रतिमाका बोधको कराने वाला, नतो कोई-चैत्य, शब्द रखा हुवा है । और नतो कोई-प्रतिमा, शब्द भी लिखा हुवा है। केवल-अरिहंत भगवंत के ही पाटसें, तीर्थंकरोंकी-मूर्तिका बोध, कराया हुवा है । और ढूंढनीजीने भी प्रतिमाका ही अर्थ, किया हुवा है । तो इहांपर थोडासा विचार करो कि-जिन प्रतिमा, जिन सारखी होती है या नहीं ? । और जिन प्रतिमाकी-अवज्ञा करने वाले, तीर्थकरोंके वैरी है या नहीं ? । और जिन मूर्तिको-पथ्थर, . पहाड, कहने वालोंका चित्त, पथ्थर पहाडरूप है या नहीं ? और तीर्थंकरोंकी-अवझा करके, अनंत संसाररूप, महा समुद्रमेंजंपापात, करते है या नहीं ? । और अपनी कीइ हुई-सर्व कष्ट क्रियाको, निष्फलरूप ठहराते है या नहीं ? । और पंडित नाम धरायके-अपनी चतुराइमें, धूड गेरते है या नहीं ?। इस वास्ते . थोडासा ख्याल करके, पिछे योग्य मारगका विचार करो।
पापात, करते होते है या नहीं
। इस वास्ते
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