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(१५८) महा निशीर्थ सूत्रपाठका विचार. लगता है, सो हम लिखके दिखावते हैं, ॥ यहां गौतम स्वामी-भगवंतको प्रश्न करते हैं कि--हे भगवन् तथा, अ. थात्--जैसे गृहस्थ--श्रावक वर्ग, जिनपूजा करते हैं तैसे, निचय करके हम-साधु है सो, अरिहंत भगवंतोंकी मूर्तिको-गंध,माला, प्रदीप, विलेपन, विचित्र वस्त्र, बलि, धूपादिकसे-पूजा, ‘सत्कार, करके दिन दिन प्रतें पर्युपासना करते हुए-तीर्थ प्रभावना करें! । भगवंत जबाब देते हैं कि-हे गौतम ! यह बात साधुको योग्य नहीं समजनी. । फिर गौतम स्वामी पुछते हैं कि हे भगवंत ! किस वास्ते यह बात योग्य नहीं ?। फिर भगवंत कहते हैं कि-हे गौतम ! तदर्थानुसारसे असंयमकी बहुलता और उनकी बहुलता करके मूल कर्मका-आश्रव होता है, ? और मूल कर्मका आश्रवसे-और अध्यवसायके योग मिलनेसे, बहुत-शुभाशुभ कर्म प्रकृतिका बंध होता है. । तीनसे सर्व सावध-व्रतका भंग होय, अर्थात् साधुपणेके-व्रतका भंग होय । और साधुपणेके व्रतका भंग होनेसे-आज्ञाका अति क्रमण होय । और आज्ञाका अतिक्रमणसें उन्मार्गपणा हुवा | और सर्व सावद्यका त्यागरूप उन्मार्गपणेसे, सुमार्गका नाश होय । और ते साधु धर्मका उन्मार्ग प्रवर्तन से, और ते साधु रूप-सुमार्गका प्रलोपन करनेसें, महा आसातना बढ़े, तिससे अनंत संसार फिरना पडे. ।। इस वास्ते हे गौत्तम ? साधुओंको यह काम अछा नहीं समजना.॥
इसमें विचार यह है कि-जहां-अम्हे का अर्थ, हम साधु करना था, उहां ढूंढनीने-कोइ कहे, यह विपरीत अर्थ किया है । परंतु ऐसा अर्थकरनेका है कि-है भगवन्-हम साधुओं, गंधादिक. स्थाने, मो, मु, म, इत्येते आदेशा भवति ।। इस वास्ते "करेमि कभी न बनेगा.
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