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महा निशीथ सूत्र पाठका विचार. (१५९) से-अरिहंत भगवंतोकी पर्युपासना करके ? तीर्थकी प्रभावना करें ! (इस सूत्रमें-प्रतिमाका बोध अरिहंत भगवंतका शब्दसेंही कराया है परंतु पथ्थर पहाड कहकरके नहीं कराया है-देखो ख्याल करके) तब भगवंतने साधुओंकोही-यह कार्य करणेका निषेध किया है। क्योंकिगंध, मालादिकसे, मूर्तिको उपासना करनेसें, साधुओंको-असंयमकी वृद्धि होय । और जो सर्व प्रकारसे-माणातिपात विरमण व्रतसे मूल कर्मका-त्याग किया है, उस मूल कर्मका-आश्रवकीभी प्राप्ति होय | और यह मूल कर्मका आश्रवसे-और अध्यवसायकेयोगसे (अर्थात् परिणामकी धारासें ) बहुत प्रकारकी-शुभ प्रक. तिर्योका, और अशुभ प्रकृतिर्योकाभी बंध होय, इस वास्ते, सर्व सावद्यका त्यागीयों को-व्रतका भंग होय । क्यौं कि--साधुओने, शुभ, और अशुभ, दोनों प्रकारकी, कर्म प्रकृतियांका नाश करनेको, व्रत लिया है, उस व्रतका भंग होता है । जैसे कि-अनेक प्रकारका दान धर्म-गृहस्थ करते है तैसे साधु-नही करते है, इसी प्रकारसें साधुओंको पूजाका भी निषेध है । और यह-सर्व प्रकारका त्याग रूप व्रतका भंग करनेसे-भगवंतकी आज्ञाकाभी, उलंघन होता है ।
और भगवंतकी आज्ञाका उलंघनसे-उलटे मार्गमें जानेका होता है । क्यों कि-जो सर्व सावद्यका त्याग करके-साधु व्रत, अंगीकार कियाथा, उसको छोडके-फिर-देश वृत्तिका, अधिकारको पकडना, यही-उलट मार्ग होता है । और यह-उलट मार्ग चलानेसे, जो साधु व्रत रूप-सुमार्ग है, उसका नाश होता है, और उलटेही मार्गकी प्रवृत्ति हो जाय । और सुमार्गका अर्थात् साधुमागेका सर्वथा प्रकारसें-नाश होय, और यह साधु व्रत रूप-सु. मार्गका नाश करनेसे महा आशातना प्राप्त होय ! ऐसा उ. लद मार्ग चलानेसे-साधुओंको अनंत संसार-भ्रमण करना पड़ें
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