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सावधाचार्य और ग्रंथोंका विचार. (१४५ ) साथ --अर्थको, मिला देना, इस प्रकार---नियुक्ति माननेका अर्थ सिद्ध है ॥
वाचक वर्ग ! दोखये इसमें-ढूंढनीजीका बेढंगापणा. कहती है कि-सूत्रार्थ कहकर-युक्ति, प्रमाण, उपमा, दृष्टांत देके, परमार्थको प्रगट करना । इसमें विचार यह है कि-जो टीकाकारोंने-अर्थ किया, सो तो सूत्रार्थ नहीं, परंतु जिस मूढके मनमें, जो आ जावे-सोही बकना, सो तो ढूंढनीका-सूत्रार्थ । और दूसरा-नि युक्तिका अर्थ, युक्ति, प्रमाण, उपमा, दृष्टांत, देके, परमार्थको-प्रगट करना, कहती है, । अब इसमेंभी विचार दखिये कि-जो युक्ति नियमित हो, सो युक्ति प्रमाण होती है कि-जिस मूढके मनमें जो आया सोही । बके, सो युक्ति-प्रमाण होगी ! और प्रमाण भी शास्त्रकारका दिया सो तो अप्रमाण, और अपने आप जो। मनमें आ जावे सोही बकना, सो तो-प्रमाण । यहभी कैसा न्याय कहा जायगा? ऐसेही, उपमा, दृष्टांतके विषयमेंभी-विचारनेका है, क्योंकि-जो हमारसे लाखापट ज्ञानको धारण करनेवाले-महान् २ आचार्यों है, उनोका किया हुवा-सूत्रार्थ, और उनोंकी दिई हुई-युक्ति, और उनोंने दिखाया हुवा-प्रमाण, दृष्टांतादि, सो तो-अप्रमाण, और हमारे मूढोंके मनमें-जो आया, सोही बकना, सो तो-प्रमाण, यह बात-महामूढोंके बिना दूसरें कौन-प्रमाण क. रेंगे? ॥ प्रथम-यह अनर्थ करनेवाली ज्ञान गर्विष्टिनी जो-ढूंढनी है, उनकाही विचार देखिये, यह हमारी बनाई हुई-समीक्षासें, किचैत्य शब्दके; अर्थमें-विभक्तिका, छंदका, अर्थका-कितना भान है ? जो महापुरुषोंका किया हुवा-अर्थको, त्याग करके, अपने आप-सर्व सूत्रोंका अर्थ, और युक्ति, प्रमाण, उपमा, दृष्टांतोसेंसिद्ध करके, और भेदानुभेदसेभी-सिद्ध करके, दिखला देगी ?।।
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