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तीर्थंकरोंमें-कल्पित निक्षेप. (५१) ढूंढनीने-पृष्ट १९ से लेके-पृष्ट २१ तक, जो कुतर्क किई है सो तो, हमारा पूर्वका लेखसे, निरर्थक हो चुकीहै । तोभी ढूंढनी. की अज्ञता दूरफरनेको किंचित् लिख दिखाते है.
ढूंढनी-भगवान्में नामनिक्षेप किया 'महावीर' तो कोई मानभी लेवें । परंतु भगवान्में भगवान्का ' स्थापनानिक्षेप ' कैसे हो. गा, । एसा कहकर, गाथार्थके अंतमें, लिखतीहै कि-गाथामें ऐमा कहां लिखा है कि-चारों निक्षेप वस्तुत्वमें मिलाने, वा चारों निक्षेपे वंदनीय है.
समीक्षा-हे सुमतिनि! तुमेरे ढूंढकोंको 'निक्षेपोंका अर्थ, समज्या होतातो, ऐसी दूरदशा ही काहेको होती ? अब देखो सूत्र, और लक्षणकारके, अभिप्रायसें कि-तीर्थकर नामकर्म उपार्जित 'जी.. वरूप वस्तु' है, ते तीर्थकरका जीवसें अधिष्टित पुद्गलरूप भिन्नशरीरमें 'महावीर' संज्ञा दिई, सो 'नामनिक्षेप' तीर्थकरमेंही दाखल हुवा. १ । और दशप्रकारकी भिन्नरूप वस्तुमेंसें-जो पाषाणरूप एकभेदमें, उस तीर्थकरका शरीरकी आकृति ' किई गई सोभी 'स्थापना' उस तीर्थकरमेंही दाखल हुई २ । और जिस वर्तमानकालमें, तीर्थकरकर्मका उपदेशरूप कार्यकी प्रवृत्ति करनेकी, योग्यता नहीं है. उनका अतीत, किंवा अनागत कालमें, आरोप करके 'ती. थंकर' कहना सो 'द्रव्यनिक्षेपभी' उस तीर्थकरमेंही होता है. ३ । जब उपदेशरूप कार्यकी प्रवृति करनेकी योग्यता प्रगटपणे विद्यमान रूपसेंहै तब सो 'जीवरूपवस्तु' भाव तीर्थकरपणे, कहा जाता है, ४ । अब विचार करों कि, यह चारों निक्षेप, तीर्थकरका जीवरूपवस्तुमें मिलें कि, कोई दूसरी वस्तुमें जाके मिलें ? जब एक निक्षेप, वंदनीय होगा, तब तो 'चारों निक्षेपभी' वंदनीयरूपही होगा ॥
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