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पूर्वसे-पश्चिम, दोडना. ( १७५) हुवा, तबके पीछेसे, कोइ कोइ भेष धारीमें, अनिष्ट कालके प्रभावसे, पतितपना होनेका-सरु हुवा, ऐसा तेरा लेखही दिखा रहा है परंतु सभी मुनिमें कुछ पाते तपना नहीं हुवा है,जो तुमेरा कल्पित पंथकी सिद्धि हो जायगी ? ॥ हे ढंढको ! तूम आचारसे, और विचार आदिसे, भ्रष्ट होकर, पूर्वले महान् महान् पुरुषोकोभी, दूषित करनेको जाते हो ? । और अपने आप निर्मल बननेको चाहते हो? क्या तो तुमेरी चातुरी, और क्या तो तुमेरी स्वजनता, हम भी तुमको शिक्षा कहां तक देंगे? अब तो तुमेराही भाग्यकी कोइ प्र. बलता होनी चाहिये, नहि तो हमारा योग्य कहना भी तुमको विष पनेही परिणमन होगा? इस वास्ते अधिक कहना भी छोड
ढूंढनी--पृष्ट. १५४ से-१ जैनतत्वा दर्श । २ सम्यक शल्योद्वार । ३ गप्पदी पिका समीर । यहतीन ग्रंथोका प्रश्न उठाके कहती है कि ? जैनतत्त्वा दर्शका स्वरूपतो मैं- ज्ञान दीपिका में,लिख चूकी हुँ। .
और सम्यक शल्योद्वार, और ३ गप्प दीपिका समीरको तुमही देखलो, कैसे अर्थके अनर्थ, हेतुके कुहेतु, जूठ, और निंदा,
और गालिये, अर्थात् दूंढियोंको किसीको दुर्गतिमें पडनेवाले, आदिकरके पुकारा है ॥ और प्रश्नोके उत्तर दिये है, और जो देते हैं, सो ऐसेहै कि-पूर्वकी पुछो तो, पश्चिमको दौडना, कुपत्ती रन (लु : गाई ) कीतरह, वातको-उलटी करके, लडना.
फिर. पृष्ट. १५६ ओ. ११ से-भ्राता ! साधु, और श्रावक, नाम धराकर-कुछ तो लाज, निबाहनीचाहिये, क्योंकि-जुठ बोलना, और गालियोंका देना, सदैव बुरा माना है,
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