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(२६) पार्वतीजीका लेख.
॥ अब जो द्रव्यनिक्षेपके विषय में व्यतिरिक्तके-त्रण भेद है सो तो, हमारा अनुपादेय पणेसें, सिद्धांतकारने स्वतः ही वर्णन किये है ॥ ... ॥ अव आवश्यकके भाव निक्षेपके विषयमें, नोआगमके, त्रण भेदमेंसें-१ लोकिक, २ कुमावचनिक । यह दोनो तो, नाम मात्रसें ही भिन्न स्वरूपके है । अब जो-नो आगमसे ३ लोकत्तरिक आवश्यकको, कहा है, उसका तात्पर्य यह है कि प्रतिक्रमणमें-उठना,
बैठना, विगरे करना पडता है, उनको द्रव्यार्थिक चार नयों ही, . मान, देतीयां है, परंतु शब्दादिक त्रण नयो है सो, उस क्रिया
ओंको, जड स्वरूप कहकर, मान, नहीं देतीयां है । इसी वास्ते लोकोत्तरिक भाव आवश्यक, सर्वथा प्रकारसे, उपादेयरूप हुये कोभी, नो आगमके, तिसरे भेदमें, दाखलकरना पड़ा है । इसमें तो केवल नयोकी ही विचित्रता है। परंतु हमतो, मुख्यतासें, द्रव्यार्थिक चारो नयोंको, मान देके, द्रव्य क्रियाका ही, आदर करने वाले है । इसी वास्ते व्रत पञ्चखाण आदि करावते है, क्योंकि भावका विषय है सो तो, अतिशय ज्ञानीके ही गम्य है, परंतु हम नही समज सकते है ॥ इत्यलं पलवितेन ॥ . ॥ इतिचतुर्थ भाव निक्षेपका तात्पर्य ॥ ढूंढनीजीके मनकल्पित चार निक्षेपका अर्थ- चंद्रोदय पृष्ट. १ में
॥ श्री अनुयोगद्दार सत्रमें आदिहीमें “ वस्तुके" स्वरूपके समजनेके लिए, वस्तुके सामान्य प्रकारसे, चार निक्षेपे, निक्षेपने (करने) कहै हैं । यथा-नामनिक्षेप१ । स्थापनानिक्षेप २ । द्रव्यनिक्षेप ३ । भावनिक्षेप ४ ।
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