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में, किया, सो उस वस्तुको, समजदा है, ॥ क्यों कि -- ऋषभदेव, कहनेसें कुछ, म्लेछोको 'नाभिराजाका पुत्र' याद न आवेगा । हां इतनाही मात्र विशेष है कि, दूसरे पुरुषमें-- ऋषभदेव नाम हैं सो, नाभिराजाका पुत्रके गुण पर्यायका वाचक न होगा । क्यौं कि वह वस्तुही दूसरी है, इस वास्तेसो ऋषभदेव नाम है सो तो, अपणाही पुरुषपणका भाव प्रगट करेगा । इस वास्ते जो ढूंढनीने कल्पना किई है, सो जैनमतसें ( अर्थात् तीर्थकर गणधरोके मतसें ) तदन विपरीत होनेसें महा प्रायश्चितकी प्राप्तिको देनेवाली है । देखो नाम निक्षेपका लक्षण सूत्रमें ||
तीर्थकरों में कल्पित निक्षेप.
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दूढनी - पृष्ट १५ ओ ९ से - औदारिक शरीर, स्वर्ण वर्ण, पद्मासन सहित, वैराग्य मुद्रा पिछाने जाय सो, स्थापना ऋषभदेव, कार्य साधक है । ओ १५ सें पाषाणादिकका बिंव, पद्मासनादिकसे, स्थापन कर लिया सो, - स्थापना निक्षेप, निरर्थक है |
समीक्षा - पाठक वर्ग ? जब ऋषभदेव - पद्मासनादि सहित, साक्षात् होंगे, सो तो 'भाव' रूपही है, उसको स्थापना, कैसें कहती है ? | फिर स्थापना, और स्थापना निक्षेप, अलग है वैसा हे सुमतिनी । तुं कहांसे ढूंढकर लाई ? शास्त्रकारने तो दश प्रकारकी ही स्थापना, भिन्नरूप वस्तुसें, मूलपदार्थकी करनी दिखाई है । इस वास्ते - स्थापना निक्षेप, निरर्थक, नही है किंतु ढूंढनीकी कल्पना ही निरर्थक है.
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ढूंढनी -- पृष्ट १६ ओ ६ --संयम आदि केवल ज्ञान पर्यंत, गुण सहित शरीर सो ' द्रव्य ऋषभदेव ' कार्य साधक है ।। ओ १३ सें-- निर्वाण हुए पीछे, यावत् काल शरीरको दाह नही किया, ताबत् काल शरीर रहा सो 'द्रव्य निक्षेप ' निरर्थक है. ॥
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