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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
( २१९ )
- सम्यक् ज्ञानादिकका करके दिखलाया । और इस चमरेंद्र के वि षयमें यम - चैत्य पद, करके दिखलाया । ढूंढनीजी वीतराग देवकी बैरिणी होके, जो मनमें आता है सो ही लिख मारती है या नहीं ? देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां पृ. १२९ से १२५ तक ।। ३५ ।।
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बहवे अरिहंत चैतमें, पाठांतरसु विशेष । सिद्धि जिन प्रतिमा तरणी, नहीं मीनने मेष ॥ ३६ ॥
तात्पर्य - सत्यार्थ पृ. ७७ में, ढूंढनीजीने, लिखा है कि-उवाईजी सूत्रके आदहीमें, चंपापुरीके वर्णनमें ( बडवे अरिहंत चेहय ) ऐसा पाठ है, अर्थात् चंपापुरी में बहुत जिनमंदिर है । इसके उतरमें लिखती है कि यदि किसी २ प्रतिमें, यह पूर्वोक्त पाठ है भी, तो वहां ऐसा लिखा है कि- ' पाठांतरे || ऐसा लिखके ते पाठको लोप करनेका प्रयत्न किया है। परंतु वहां आयारवंत चेइय, का दूसरा पाठमें भी चैत्य शब्दसे, दूपटपणे - जिनमंदिरोंकी सिद्धि होती है ! तोभी ढूंढनीजीने-अंडजीके विषयमें, इसी चैत्य शब्दका अर्थ- सम्यक ज्ञानादिक करके दिखलाया । और चमरेंद्रके विषय में - चैत्य पद, अर्थ करके दिखलाया । और इहांपर सder प्रकार - लोप करनेको, तत्पर होती है ? |
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परंतु चैत्यशब्द से - जिनप्रतिमाकी सिद्धिमें, मीन राशिकी - मेष राशि होने वाली नहीं हैं । किस वास्ते वीतराग देवकी - आशातना
१ पाठांतरका अर्थ यह है कि, उसी अर्थका प्रकाशक, दूसरा पाठसें, स्पष्ट करना । जैसें सत्यार्थ पृ. १ ले में, निक्षेपने (करने ) । पृ. ७० में. श्मश्रु ( दाडी मुछ) इत्यादिक देखो, विशेष प्रकाशक है कि- लोपक है ? |
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