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(२०) द्रव्य निक्षेप सूत्र. जब ते अरूपी ज्ञान गुणका, एक अंशका अक्षरों की स्थापना निक्षेपको, निरर्थक मानोंगे, तब जैनके सर्व सिद्धांतभी, निरर्थक, और उपयोग विना के ही, हो जायगे ? ॥ और आवश्यककी दूसरा प्रकारकी स्थापनामें-ढूंढनीका सत्यार्थ पृष्ट ४ का लेखमें जो "आवश्यक करने वालेका रूप, अर्थात् हाथ जोडे हुये, ध्यान लगाया हुआ ऐसा रूप" के अर्थसे लिखा है, उससेभी, जैन साधुकी मूर्तिही सिद्ध होती है, सो भी निरर्थक कैसें होंगी ? तुम कहोंगे कि-नमस्कार नहीं करते है, तो पिछे ढूंढक साधुकी मूर्तियां किस वास्ते पडाव ते हो ? और साधुका नाम मात्रसें भी नमस्कार क्यों करते हो ? जैसें मूर्ति, साधु साक्षात्पणेसें नहीं है, तैसें नामका अक्षरोमेभी क्षासात्पणे साधु वैठानही है ? ॥ हम तो यही कहते हे कि- . जो हमारी प्रिय वस्तु है, उनके चारो निक्षेपही, प्रिय रूप है । उसमेंभी वीतराग देवतो, हमारा परम प्रिय रूपही है, उनका चार निक्षेप, हमको परम प्रिय रूप क्यों न होगा ? सो वारंवार ख्याल करते चले जाना.
. इति स्थापना निक्षेप सूत्रका तात्पर्थ.
॥ अथ ३ द्रव्य निक्षेप सूत्रं. ॥ ॥ सेकिंतं दव्यावस्सयं २ दुविहं पण्णत्तं तंजहा; १ आगमत्रोत्र । २ नो आगमोत्र। सेकिंतं. १ आगमओ दव्यावस्सयं २ जस्सणं आवस्सएत्ति पदं सिख्वियं ठितं, जितं, मितं, परिजितं, नामसमं, घोससमं, जावधम्म कहाए, नोअणुपेहाए, कम्हा अणुवोगो दव्वमिति कट्टु.॥
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