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नेत्रजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका.
(२९)
९५ दादाजी जिनदत्त सूरिजीने अनेक जिन मंदिरोंकी म तिष्टाओ कराई है । उनोंने साधुजीकी पूजाका निषेध किया है । उस पाठसें ढूंढनीजी - सर्वथा प्रकार से निषेध करके दिखलाती है । उनकी समीक्षा. १६७
९६ मूर्तिपूजाका चलन बारांवर्षी दुकालसें दिखलाती है । और भगवंत के पहिले सेंभी होने का कहती है । और चोये आरेके साधुओं को भी असंयमी ठहराती है । उनकी समीक्षा.
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९७ ढूंढनीजी - जैन तत्रादर्शादिक ग्रंथोंको निरर्थक ठहरायके, अपनी गप्प दीपिका - लोकोको प्रकाश दिखाती है । उनकी समीक्षा.
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९८ जैन
से विमुख ढूंढिये, सो तो सनातन जैन । और जैन तत्रानुकुल जैनी, सो तो सब नकल जैन । उनकी समीक्षा -
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९९ लोकाशाहने, पुराने शास्त्रोंका - उद्धार किया। और दीक्षा गुरुजीसें, लडकर लवजीने, ढूंढियांका - उद्धार किया । ओर पीतांवरियांका - कल्पित नयामत निकला है । उनकी समीक्षा
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१०० वेद व्यास के वखतमेंभी ढूंढिये हीथे, और सब सभाओं में जित मिलाते मिलाते, आजतक चले आये है। इस वास्ते अढाई सो वर्षका - मत लिखने वाले, मिथ्या वादी है । उनकी समीक्षा -
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१०१ ढूंढनीजी - तीर्थकरों की, सब गुरुओं की, जूठी निंदा लिखके, और अपना साध्वीपणा दिखाके, लिखती है कि ऐसी
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