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नत्रजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका.
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३ और कोई महात्मा । इन तीनोंमेंसें एकादका शरणा लेके जाते है । उसमें जो दूसरा शरण-जिन प्रतिमाका है, उसके स्थान में अरिहंत पद, की जूठी सिद्धि करनेको देवयं चेयं, के पाठका तात्पर्यको समजे बिना, कुछका कुछ लिख मारा है । उनका भी खुलासाकी साथ । समीक्षा -
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८६ चैत्य शब्दका अर्थ - प्रकारांतर सें पांच दश, कदाच कर सकते है । तो भी ९१२ अर्थकी, जूठी सिद्धि करनेका प्रयत्न किया है । उनकी समीक्षा
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८७ मूर्तिपूजनमें षट् कायारंभ, और जडको चेतन मानकर मस्तक ज़ुकाना, मिथ्यात्व कहती है । उनकी समीक्षा - १३० ८८ महा निशीथ की - गाथामें लिखा हैकि - जिन मंदिरोंसें, पृथ्वीको मंडित करता हुवा, और दानादिक धर्मको करता हुवा भी श्रावक, बारमा देवलोक तकही जा सक ता है। इसमें ढूंढनीजीने, मंदिरोंका अर्थको लोप करनेका, प्रयत्न किया है । उनकी समीक्षा. ८९ कयबलिकम्माका, पाठके संकेत से, वीर भगवान के श्रावकों का - दररोज जिन प्रतिमाका पूजन, सर्व जैनाचार्योंने लिखा है । उसके स्थान में ढूंढनीजी - मिथ्यात्वी पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिकोंकी - भयंकर मूर्त्तियांको, दररोज पूजानेको तत्पर हुई है। उनकी समीक्षा- ११३
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९० ढूंढनीजी - जैन के सब ग्रंथोंको, गपौडे कहती है । और जैनके आजतक जितने आचार्यों हुये है, उस सबकोसावद्याचार्य कहकर, निंदती हैं । और -निर्युक्ति, भाष्य,
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