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ढूंढनीजीके - आठ विकल्प.
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है । परंतु इस ढूंढनीको इतना विचार नही हुवा कि मैं -मूर्ति के द्रव्यका, और भगवानके द्रव्यका, प्रश्न ही अलग अलग वस्तुका करती हुं तो, दोनोही भिन्नस्वरूपकी 'वस्तुका ' चार निक्षेप एक स्वरूपका कैसें हो जायगा ? हे ढूंढनी जी ! तो सिद्धांतकार चूके है, और न तो हमारे गुरुवर्य चूके है, केवल गुरुज्ञानको लिये विना तूं, और तेरा जेठमल, आदि ढूंढक साधुओं, इस चारनिक्षेपके विषय में- जगे जगें पर चूकते ही चले आये है, क्योंकि - मूर्त्ति यह नाम - पाषाणरूप वस्तुका है । और महावीर यह नाम-सिद्धार्थ राजाका पुत्र तीर्थंकर रूप वस्तुका है। इस वास्ते दोनो ही भिन्न भिन्न स्वरूपकी वस्तु होनेसें, चार चार निक्षेप भी अलग अलग स्वरूपसें ही करना उचित होगा ? किस वास्ते जूठा परिश्रमको उठा रही है ? न तो तुम निक्षेपका विषयको समजते हो ? और न तो नयोंका विषयको समजते हो ? एकंदर वारिक दृष्टिसें जो विचार करके तपास क रोंगे तो, तुम लोक जैनधर्मका सर्व तत्वका विचारसें ही चुके हो ? इस वास्ते ही तुमेरा विचारोंमें, इतनी विपरीतता हो रही है ? नहीतर जैनधर्मके सिद्धांतों में कोई भी प्रकारका फरक नही है, किस वास्ते महापुरुषों की अवज्ञा करके - जैनधर्मसें भ्रष्ट होते हो ? ॥ इति अलमधिक शीक्षणेन ॥
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इति मूर्त्तिमें- भगवान के ' चारनिक्षेप' का विचार ||
इहां पर्यंत चारनिक्षेपके विषयमें ढूंढनीजीका जूठा मंडन, और हमारा तरफका खंडन, और अनुयोगद्वार सूत्र पाठसें एकता देखके पाठकवर्ग अवश्य मेव गभराये होंगे, न जाने किसका कहना
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