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(१८) स्थापना निक्षेप सूत्र. हुये आदिका, आवश्यक वैसा नाम किया सो" नाम प्रावश्यक" है. ॥ १॥ ' नाम निक्षेप सूत्रका तात्पर्यः-इहां जो " आवश्यक "शब्दका, निक्षेप करनेमें, सूत्रकारकी प्रवृत्ति है सो, तीर्थकर भगवानके, अरूपी ज्ञान गुणका जो एक अंश, छ आवश्यक रूप "वस्त है " उनकी मुख्यतासेही है । और प्रसंगसे जिहां जिहां इस ना. मका संभव होता है सोभी दिखाया है। परंतु हम तीर्थंकरोंके भक्त तो, अनुपादेय वस्तुओंका दुर्लक्ष करके, जिहां इष्टरूप अवश्य क्रियाका, संभव है । उनकाही बोध, नाम मात्रसेभी कर लेते है । इस वास्ते उनका आधारभूत आवश्यक पुस्तक 'वस्तुका' अभिप्रायसें; तिरस्कार हम नाम मात्रसेंभी, सहन न कर सकेंगे। जैसे" करान" नाम मात्रका तिरस्कार मुसलमानो, और " वेद" नाम मात्रका तिरस्कार, ब्राह्मणो सहन नहीं कर सकते है । कोई पुछेगे कि-उपादेय वस्तुके अभिप्रायसें, सूत्रकी रचना हुई है, ऐसा तुमने कैसें जाना । उत्तर-आत्माको गुणोसें वासित करें इत्यादिक अर्थसें ॥ और सत्यार्थ-पृष्ट. २ में-पार्वतीजीनेभी लिखा है किअवश्य करनेके योग्य, सो आवश्यक इस लेखसेंभी, और आगेके सूत्रोंसेभी, सिद्धरूपही पडा है । मात्र विचार करनेवाला होना चाहीये?॥
॥ इति नाम निक्षेप सूत्रका तात्पर्याथ ॥ ॥ इति आवश्यक नाम निक्षेप सूत्रार्थः ॥
अथ आवश्यक स्थापना निक्षेप सूत्र. . सेकिंतं ठवणावस्सयं २ जण्णं : १ कठकम्मेवा ।
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