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________________ ( २०० ) ग्रंथकी पूर्णाहूति. अर्थ - - हे नाथ यह तुमेरी अलोकिक भव्यस्वरूपकी - शांत मूर्त्ति हैसो, क्या विश्व जे जगत है उनका उपकार करनेका सामवाली है ? अथवा क्या जगतका पुण्यकी रक्षा करनेके वास्ते एक पेटी के स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगतकी सर्व प्रकार सें वत्सल्यता करणेका स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगतको पवित्रता करनेका एक पिंड स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगतका दालिद्र दूर करनेके वास्ते कल्प वृक्षके स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगत्‌का चिंतित अर्थकी संपत्तिको देनेके वास्ते चिंतामणि रत्नके स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगत्को इछित वस्तुकी प्राप्ति करने के वास्ते कामधेनुके स्वरूपकी है ? हे भगवन् मेरा हृदय में प्रकाशमान हुई किस किस रूपकी लक्ष्मीको धारण नही करती है ? अर्थात् जगतमें लोकोंकी कामनाको पूर्ण करनेवाली जो जो सिद्ध वस्तुओं हैं काही स्वरूप प्रगटपणे भासमान हो रही है ॥ १ ॥ ॥ इति श्री विजयानंद सूरीश्वर लघुशिष्येन अमरविजयेन सत्यार्थ चंद्रोदयजैनात्तररूप, ढूंढक हृदयनेत्रांजनं संयोजितं तस्य प्रथम विभाग स्वरूपं समाप्तं ॥ ॥ इति ढूंढक हृदयनेत्रांजनस्य प्रथमो विभागः समाप्तः || Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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