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________________ जैन सिद्धांतका स्वरुप. ( ९ ) और वस्तुका - द्रव्य निक्षेपके अर्थ में - वस्तुको वर्त्तमानमें गुण रहितपणा दिखाके, फिर नाम निक्षेपको, और स्थापना निक्षेपको भी, मिलाती है ॥ ३ और वस्तुका भाव निक्षेपके अर्थमे वर्त्तमानमें गुण सहित - पणा दिखाके, फिर वही - नाम निक्षेप, और स्थापना निक्षेपको भी साथमें ही - वर्णन करके दिखलाती है । सो क्या जरुरथी ? सो तो अलगपणे ही कहे गये हुये है । जब वस्तुका - द्रव्य निक्षेपके विषयमें - वर्त्तमानमें गुण ही नहींथा, तो पिछे अतीत अनागतमें भी, कहांसे प्राप्त होगा ? ४ ॥ را यह ढूंढनीजीका लिखना ही अगडं बगडं रूप है, क्योंकि वस्तु तो गुणविनाकी तीनोंकालमें - कभी रहती ही नहीं है || ॥ इति - चार निक्षेप विषये, ढूंढनीजीका विपरीत ज्ञानका, विचार ॥ - || अब हम जैन सिद्धांतका किंचित् स्वरुप, कहते है || किया है जिनेश्वर देवके-तन्त्रका, अंत, जिसमें सो- जैन सिद्धात || अब सूत्र - अल्प अक्षरोंसेंभी किया है बहुत अर्थोंका वेष्टन जिसमें सो- सूत्र, कहते हैं ।। तिस ही सूत्रों में एक अनुयोग द्वार नामका भी सूत्र है, उसका अर्थ यह है कि - अनु जे किंचित् मात्र सूत्र, उनकी साथ-महान् अर्थका योग, सो अनुयोग । जिस अनुयोगद्वार सूत्रमें - सर्व सिद्धांत की कुंचिकारूप, चार अनुयोगकी, व्यारूपा किई गई है। इसी कारणसें महा गंभीरार्थ रूपमें होगया है, सो सद्गुरुके पास पढ़ें बिना, कोईभी वाचालता करेगा, सो, हास्य पदका पात्र बनेगा । हम अनुमान करते है कि इस ढूंढनी पार्वती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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