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( २६ )
तीर्थकरों का दर्शन.
साध्य सधेय, भाव अवस्था रोपें त्रणेय, भाव रूप सद्दय ॥ १ ॥ | यह प्रथमके उद्गारमें चाली भिन्न है ।।
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अर्थ - हे भव्यजनो जे आ जगतमां, जिन प्रतिमा है उनको तुम - बंदो, जिसें तुमेरा भवका छेह [ अर्थात् अंत ] आ जावें । जे नामादिक निक्षेपके भेद है, ते सर्वे – आराधना करके आराधन करनेके योग्य है । परंतु त्यागने लायक इसमेंसें एक भी नहीं है । क्योंकि नाम (वाचक) विनाके, [ वाच्य ] तीर्थंकरो ही, नहीं होते है ? | और उनोंकी - आकृति [ मूर्त्ति ] का, विचार किये बिना - स्मरण भी नहीं होता है २ । और आकृति है सोद्रव्य वस्तुके बिना, नहीं होती है ३ । और तीर्थकरोका - भाव, दिलमें लाये बिना, अपना जो पापका नाश करने रूप साध्य है, सो भी सिद्ध होनेवाला नहीं है ।
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और नामादिक जे त्रण निक्षेप है, सोही-भाव अस्थाको, जनानेवाले है | इस वास्ते ते पूर्वके त्रणें निक्षेपो ही, भाव रूपसें सहना करने योग्य है ॥ १ ॥
* ।। रसना तुज गुण संस्तवे, दृष्टि तुज दरसनि, नव अंग पूजा समें, काया तुज फरसनि । तुज गुण श्रवणें दो श्रवण, मस्तक प्रणिपातें, श्रुद्ध निमित्त सवे हुयां, शुभ परिणति यातें । वि
* ढूंढनीजीने सत्यार्थ पुष्ट. १७ में, लिखाया कि - जिनपद नहीं शरीमें, जिनपद चेतन मांह । जिन वर्णन कछु और है, यह जिन वर्णन नह ॥ १ ॥
इस महात्माका -दूसरा, तिसरा, उद्गारसें । ढूंढनीजी अपना लिखा हुवा दुहाका - तात्पर्य अछीतरां विचार लेवें ॥
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