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ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. (५९) आता है सोतो श्रावकोंका-भवोभवमें, हित, और कल्याण के लिये जिनेश्वर देवकी-भक्ति, करनेके वास्ते ही-लिखा गया है । नहीं के मिथ्यात्वी देव जो-पितर, दादेयां, भूतादिक है, उनोंकी-निरंतर भक्तिके, वास्ते-आता है । किस वास्ते भव्य जीवोंको-जिन धर्मसें, भ्रष्ट, करते हो ? अपना जो-कल्याण, होने वाला है, सोतो-चीतराग देवकी-सेवा, भक्तिसे हो, होने वाला है ?। कुछ मिथ्यावी पितरादिककी-सेवा, भक्तिसें, नहीं होने वाला है ॥
फिरदेखो-सत्यार्थ पृष्ट. ७७ में-उवाई सूत्रका पाठ-बहवे अरिहंतचेइय, इसपाठका, अर्थ-बहुत जिनमंदिर, ऐसा ढूंढनीजीनेभी-मान्यही किया है, मात्र इसी-अर्थका, प्रकाशक-आयार वंतचेइय, के पाठसे-दूसरा पाठ आता है, उनको प्रक्षेपरूप ठहरायके, लोप करेनका प्रयल, कियाहै ! परंतु इहांपर दोनोंप्रकारका पाठमें-चेइय, शब्दसें-जिनमंदिरोंका, अर्थकीसिद्धि, दुपटपणेसें होरही हैं ! देखो इसका विचार-नेत्रांजनके प्रथम भागका पृष्ट १०३ में अब इसमें-फिरभी, ख्यालकरोंकि-इस उवाई सूत्रके-दोनों प्रकारके, पाठमें-चेइय, शब्दसें, जिनमंदिरोंकी-बहुलता, और श्रावकों कीभी-बहुलता, दिखाके ही, चंपानगरीकी-शोभामें, अधिकता दिखाई है । तोभी विपरीतार्थको ढूंढनेवाली-ढूंढनीजीने, सत्यार्थ पृष्ट, ७८-७९ में इसी सूत्रसें, दिखाया हुवा-अंबड परित्रानक, परम श्रावकका-"अरिहंत चेइय" के पाठमें, अरिहंतकी-पतिमाका, प्रगट अर्थको छोडकरके, उनका अर्थ-सम्यकत्रत, वाअनुव्रतादिक धर्मरूप, वे संबधका-करके, दिखाया है ।
इसमें विचार करने का यह है कि-ते चंपानगरीके जिनमंदिरों
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