Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसत्रे
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प्राणिजातमात्मसदृश पश्यन् , अन ५५ उपशान्त'कपायरहित सन अपिहेठका अन्यस्याखेटक. स्यात् , म भिसुरुच्यने ॥१५॥
तथा-- मृलम्-असिप्पजीवी अगिहे अमिते, जिईदिओ सव्वओ विप्पमुके। अणुक्कसाई लहअप्पभक्खी, चिच्चा गिह एगैचरे से भिक्खूतिवेमि ॥१६॥ छाया-अशिल्पजीवी अगृह अमित्र , जितेन्द्रिय सर्वतो विषमुक्त ।
अणुरुपायी न वल्पभक्षी, त्यत्तवा गृहमे कचरः स भिभुः इति नवीमि ॥१६॥ टोका-'अमिप्पजीवी' इत्यादि ।
अगिल्पजीवी शिल्प-चित्रपादादिविज्ञान, तेन जीपोतु गीलमस्येति शिल्पजीपी, न शिल्पजीवी-अशिल्पजीवी, शिल्पजीविकारर्जित इत्यर्थ , तथा
गृह -नास्ति गृह यस्य स -गृहवर्जित , तथा अमित -मित्रवर्जित , उपलक्षण तया शत्रुवर्जितश्च, तथा-जितेन्द्रिय -जितानि स्वयशीकृतानि इन्द्रियाणि-श्रोगा परीषहो से अचलित होकर (सबदसी-सर्वदर्शी) समस्त जगत के प्रागीयों को अपने जैसा समझने लगता है और इसी भावना के बल पर वह (उबसते-उपशान्त ) कपार से रहित होकर (अविहेउरा-अविहेठक) किसी भी प्राणी को खेदित नहीं करता है (म भिक्खू-स भिनु) उसी का नाम भिक्षु है ॥१०॥ __ तथा-'असिप्पजीवी' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(असिप्पजीवी-अशिल्पजीवी) चित्र काढना पत्र आदि का किसी विशिष्ट आकार से छेदन करना यह शिल्पविद्या है । इस शिल्पविद्या से जो अपनी जीवीका नहीं करता हो अर्थात् शिल्पीजीवी नही है (अनिदे-अगृह ) गृहसे जो रहित है (अमित्ते अमित्र) मित्र जभिभूय अनु। प्रतिः परिपडाथी अन्यसित मनान सम्पदसी-सर्वदशी समस्त જગતના તમામ પ્રાણીઓને પિતાના જેવા સમજવા લાગે છે અને એ લાવનાના ४३ 6५२ ते उपसते--उपशान्त उपायथी २४ात मनीन अविहेउए-अविहेठ, 154 प्राणीने मे 6444ता नथी स भिक्खू-स भिक्षु तेनु नाम लिनु छ ॥ १५ ॥
तथा ---- 'असिप्पजोत्यादि।
अन्वयार्थ --असिप्पजीवी-अशिल्पजीवी यित्र यतायु, पत्र मानि ४ વિશિષ્ટ આકારથી છેદન કરવું, એ શિ૮૫ વિદ્યા છેઆવી શિલ્પ વિદ્યાથી જે घोताना न निवड न यक्षात हय अर्थात शिपकी नथी अगिडेअग्रह ५२थी २ २हित छ अमित्ते-अमित्र भित्र तमा नुने नयी