Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीम " गा । भिक्षगुणप्रतिपादनम
टीका-'वाय' इत्यादि ।
1. साधु. के प्रचलित विविधम् अनेकपकार वाद-भिन्न भिन्न दर्श नाभिमायचक वाद-मा
सेतुकरणेऽपि पर्मो, भवत्यसैतारणेऽपि फिल धर्म । गृहवासेऽपि च धर्मो, बनेप वसता भाति धर्म ॥१॥ मुण्डस्य भाति धर्म , तथा जटाभि. साससा धर्मः ।
गृहरासेऽपि च धर्मों पनेऽपि बसता भवति धर्म ॥२॥ इति । इत्यवरूप दर्शनान्तराभिमतमेकान्तबाद समेत्य परिज्ञाय-न परिज्ञया सयमहानि स्प नात्या प्रत्यार यानपरिक्षया परित्यज्य सहित.ज्ञानक्रियाभ्या महित., यद्वाहितेन-परिणाममुरमाबहेन जिनवचनेन सहित , किंवा-द्वितीयादिमुनिसहितः,
खेदानुगत -खेदर्यान कर्माननेतिग्वेद.-सयमम्तमनुगत , सयमयुक्त इत्यर्थः चपुन सोविदात्मा-कोविद -लब्धशास्त्रपरमार्य आत्मा यस्य स तथा प्राज्ञो हेयो पादेयबुद्धिमान् अभिभूय सवदर्शी-परीपहानभिभूय रागढपो निराकृत्य च सर्व
तथा-'वाय' इत्यादि।
अन्वयार्थ-जो साधु (लोग विविह वाय समिच-लोके विविध वाद समेत्य) लोकमे प्रचलित विविध मान्यताओं को ज्ञ परिज्ञा से मयम की हानिकारक जानकर पश्चात् प्रत्यारयान परिज्ञा से उनका परित्याग कर देता है और (सहि-सहितः) ज्ञानक्रिया की दृढता से युक्त, यहा परिणाम मे सुखावह जिनवचन से युक्त अथवा द्वितीयादि मुनियुक्त वनकर (खेयाणुगए-खेदानुगत.) सयम की आराधना करने मे लवलीन रहता है एव (कोवियप्पा-कोविदात्मा) शास्त्रीय रहस्य ज्ञान से अपने आप को वासितकर (पन्ने-प्राज.) हेय और उपादेय की बुद्विसपन्न बन जाता है तथा (अभिभूय-अभिभूय) अनुकूल प्रतिकूल
तथा--'वाय" त्या !
मन्वयार्थ -२ साधुलोए विविहवाय समिच्च-लोके विविध वादसमेत्य सीमा પ્રચલિત વિવિધ માન્યતાઓને જ્ઞ પરિણાથો સયમમાં હાનીકારક જાણીને પછીથી પ્રત્યા भ्यान परिज्ञाथी तेना परित्या ४री छ, भने सहिए-सहितः शानजियानी हाथी યુક્ત યદ્રા પરિણામમાં સુખાવહ જીન વચનથી યુક્ત અથવા બીજા મુનિઓથી युत मनीन खेयाणुगए-खेदानुगत. सयभनी याराधना २पामा लीन रहेछ भने कोवियप्पा-कोविदात्मा शास्त्रीय २९स्य ज्ञानथी चातानीजतने पासात ४शन पन्ने-प्रज्ञ. य मने पायी भुद्धि सपन्न मनी लय छ तेमा अभिभूय