Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टीका अगा १४ भिवगुणप्रतिपादनम्
टीका-'सदा' इत्यादि।
लोके विविधाः परीक्षापद्वेषादिना क्रियमाणत्वादनेकविधाः दिव्या' देवसम्बन्धिन , मानुप्यका =मनुप्यसम्बन्धिन तमा तैरवा -तिर्यक्सरन्धिनश्च गन्दा ध्वनयो भान्ति । एते गदा भीमा:रोठा, भयभैरवाः-भयेन भैरवाःअत्यन्त भयजानका . उदारा महा वनिमया भवन्ति । यः साधुरेताहगान् गन्दान् अत्वा न विभेति-धर्म यानात् प्रचलितो न भवति, म भिक्षुरुज्यते । अनेन सिंहविटारितायामुपसर्ग सहिष्णुत्व निमित्तमुक्तम् ॥१५॥
तथा-'सद्दा' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(लोग-लोके) इस समार में (विविह-विविधम् ) परीक्षा करने के निमित्त को लेकर या द्वेप आदि कारण को लेकर विविध प्रकार के (सद्दा-गब्दाः) शब्द (दिन्वा-दिन्याः) देव मरधी (माणुस्सयामानुप्यका') मनुष्यसनधी, (तिरिच्छा-तैरश्वाः) तिर्यच सनधी (भवनि-भवन्ति) होते है। जो शन्द (भीमा-भीमाः) रोद (भयभेरवाभयभैरवा) व अत्यन्त भयजनक होते है जो (जो-य.) जो साधु इन शब्दो को (सोच्चा-श्रुत्वा) सुनकर के भी (ण विहेजइ-न बिभेति) नहीं डरता है-धर्मध्यान से विचलित नही होता है (स-भिक्ख-स भिक्षु.) वह भिक्षु है। इस कथन से इस बात की पुष्टि सत्रकारने की है कि सिंहवृत्ति से विहार करने में सायु को उपसर्ग सहिष्णु होना चाहिये।
भावार्थ-ससार मे भिन्न २ प्राणियों के होने में उनकी विचारधाराए भी भिन्न २ दुआ करती है। कोई ऐसे भी भावुक जन होते
तथा "सदा" त्या !
मन्वयार्थ लोए-लोक मा ससारमा विविह-विविधा परीक्षा पाना निभित्तने सन 24 तद्वेष माशाने विविध प्ररना सहा-शब्दा शह दिव्या-दिव्या व सधी, माणुसीया-मानुष्यकाः मनुष्य समाधी, तिरिच्छा-तैरिया तियय समधी भवति-भवन्ति थाय छ २ शह भीमाभीमाः रौद्र मने भय-भेरवा-भवभैरवा. सत्यत बयान डाय छ जो-य. साधुन सा शहाने सोचा-श्रुत्वा सामा त पण विहेज्जइ-न विभेति ७२ता नथी-भ ध्यानथी वियसित थता नथी स भिक्ख-स भिक्षु ते लक्षु छ આ કથનથી એ વાતની પુષ્ટી સૂત્રકારે કરી છે કે, સિ હવૃત્તિથી વિહાર કરવામાં સાધુએ ઉપસર્ગ સહિષ્ણુ બનવું જોઈએ | ભાવાર્થ–સ સારમાં ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારના પ્રાણીઓ હોવાથી એમને વિચાર પણ ભિન્ન ભિન્ન હોય છે કેઈ પણ ભાવિકજન હોય છે કે સાધુને જોતાજ શ્રદ્ધાથી