Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मूलम्
प्रियदर्शिनी टीका भ० ४ गा ५ वित्तस्यत्राणा भायकथमम् । पायाश्रयणेन स्वकृतकर्मरन्धात् मोसो न भवतीत्युक्तम् । अधुना द्रव्यमेन तन्मोक्षाय भविप्यतीत्याशझ्याहवित्तेण ताण न लभे पैमत्तो, इमम्मि लोएं अदुओं परत्था । दीवप्पण? वै अणंतमोहे, णेयाउय देदृमदेव ॥ ५ ॥ छाया-वित्तन नाण न लभते प्रमत्तः, अस्मिन लोके अथवा परत्र ।
दीपमणष्ट इय अनन्तमोह. नैयायिक दृष्ट्वा अद्रप्टैव ॥ ५ ॥ टीका-वित्तण' इत्यादि।
प्रमत्तः पञ्चप्रमादशगः, अस्मिन् लोके वर्तमानभवे, अथवा परा-परलोके परभवे, वित्तेन धनेन प्राण = स्वकतपापकर्म फलभोगकाले रक्षण, कर्मनन्ध मनध छोडकर इन मुनिरूप सार्थवाह का आश्रय करता है । इस प्रकार धनमित्र ने उन्धुमोह का परित्याग कर मुनिधर्म को ग्रहण करके दोनों लोकों के सुख को प्राप्त किया। इस प्रकार बान्धवों के आश्रय से अपने किये हुए कर्म के बन्धका छुटकारा नही होता है। यह बात इस दृष्टान्त से साबित कर दी गई है ॥४॥ यर धनमित्र वणिगृदृष्टान्त हुआ।
अय द्रव्य भी किये हा कर्म के बन्ध से छुटकारा नही करा मकता है यह बात पतलाई जाती है---'वितेण' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(पमत्तो-प्रमत्तः) पाच प्रमाद के वश मे हुआ जीव (इमम्मि लो-अस्मिन् लोके) इस भव मे-वर्तमान पर्याय मे (अहवाअथवा) या (परत्या-परत्र ) परलोक मे (वित्तेण-वित्तेन) धन की महायता से (ताण-त्राणम् ) अपने द्वारा किये गये पापकर्म के फल વચને અનુસાર બધુજનોની સાથે સબંધ છેડીને આ મુનિરૂપ સાર્થવાહને આશ્રય સ્વીકારે છું આ કામણે ધનમિત્રે બધુમેહનો ત્યાગ કરી મુનિ ગ્રહણ કર્યો અને આલેક તેમજ પરલોકના સુખને પામે આ રીતે બધાના આશ્રયથી પોતાના કરેલા કર્મને બ ધનથી છુટકારો થતો નથી આ વાત આ દાતથી સાબિત કરવામાં આવેલ છે જે ૪ આ ધનમિત્ર વણિગુણાત થયુ
હવે એ વાત સમજાવવામાં આવે છે કે, દ્રવ્ય પણું કરેલા કર્મના थी छुट ।। ७२रावी शतु नथी 'वित्तेण' त्यहि __ मन्वयार्थ-प्रमत्तो-प्रमत्त पाय प्रभाहना वशमा माये। 04 इमम्मि लोएअस्मिन् लोके पर्यायभा अहह्मा-अथवा मया परस्था-परत्र ५२ उभा वित्तेण-वित्तेन घननी सहायताथी ताण-त्राणम् पाताना द्वारा ३२वामा मावा पापभनु