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प्रथम अधिकार घनोवधौ च लोकाने स्थौल्यं क्रोशद्वयं मतम् । क्रोशक घनवाते च तनुवाले घनषि वै ॥८६।। पञ्चसप्तति युक्तानि शतपञ्चदशेत्ययम् ।
सर्वतोप्यावृतो लोकः सर्वो वातत्रयभवेत् ।।१०।। अर्थः- लोक के अग्रभाग पर घनोदधिवातवलय की मोटाई २ कोश, घनवातबलय की एक कोश और तनुवातवलय की मोटाई १५७५ धनुष प्रमाण है। इस प्रकार यह लोक सभी ओर से तीन वातबलयों के द्वारा बेष्ठित है ॥८६-६०॥ अब चार श्लोकों द्वारा वसनाली के स्वरूप आदि का विवेचन करते हैं:
उदखलस्य मध्याधोमागे छिद्रे कृते यथा।
वंशादिनालिका क्षिप्ता चतुष्कोणा तथास्य च ॥१॥ अर्थः-ऊखली के मध्य बीचों बीच अधोभाग पर्यन्द छिद्र करके उसमें वांस आदि की चतुष्कोण नाली डाल देने पर जैसा श्राकार बनता है वैसा ही आकार लोक नाली का है ||११||
लोकस्य मध्य मागेऽस्ति सनाडी त्रसान्विता । चतुर्दशमहारज्जूत्सेधा रज्ज्वेक विस्तृता ॥१२॥ असनाड्या बहिर्भागे त्रसाः सन्ति न जातचित् ।
समुद्घातौ विना केबलिमारणान्तिकात्मनौ ॥१३॥ अर्थ:-लोक के मध्यभाग में त्रस जोबों से समन्वित, चौवह राज़ ऊँची और एक राज चौड़ी असनाड़ी (नाली) है । इस त्रस नाड़ी के बाह्य भाग में केवलि समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात (और उपपाद) के बिना कभी भी अर्थात् अन्य किसी भी अवस्थाओं में त्रस जीव नहीं पाये जाते ॥६२,६३।।
विशेषार्थः-लोक ३४३ धनराजू प्रमाण है। उसमें बसनाड़ी का धन फल (१४४१४ १) १४ घनराजू प्रमाण है और इतने ही क्षेत्र में त्रसजीवोंका सद्भाव पाया जाता है, शेष (३४३-१४ धनराजू) - ३२६ घनराजू क्षेत्र सनाड़ी से बाहर क्षेत्र कहलाता है। इस बाय क्षेत्र में मात्र स्थावर जीव ही पाये जाते हैं, बस नहीं । अर्थात् असपर्याय समन्वित जीव नहीं पाये जाते किन्तु उपपाद, मारणान्तिक और केबलिसमुद्धात वाले त्रस जीवों के प्रात्मप्रदेशों का सत्त्व वहाँ अवश्य पाया जाता है।
जीव का अपनी पूर्व पर्याय को छोड़ने पर नवीन आयु के प्रथम समय को उपपाद कहते हैं । पर्याय के अन्त में मरण के निकट होने पर बद्धायु के अनुसार जहाँ पर उत्पन्न होना है, वहाँ के क्षेत्र