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* प्राकृत व्याकरण *
लुक् ॥ १-१०॥
स्वरस्य स्वरे परे बहुल लुग भवति ।। त्रिदशेशः । तिअसीसो ॥ निःश्वासोच्छ बासौं । नीसाससासा ।।
___ अर्थ:-प्राकृत-भाषा में (संधि-योग्य) स्वर के आगे स्वर रहा दमा हो तो पूर्व के स्वर का अक्सर करके लोप हो जाया करता है ! जैसे:-त्रिदश + ईशः = त्रिदशेश:-तिअस + ईसो - तिअसीसो और निःश्वास: + उच्छ्वास: निश्वासोच्छ्वासी-नोसासो + ऊसासो = नीसासूसासा । इन उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण में 'अ + ई' में में 'अ' का लोप हुआ है और द्वितीय उदाहरण में 'ओ + 3' में से ओ का लोप हुआ है । यो 'स्वर के बाद स्वर आने पर पूर्व स्वर फे लोप' की व्यवस्था समझ लेनी चाहिये ।
विश+ ईशः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तिअसीसो होता है इसमें सत्र-संकपा-२-७९ से 'वि' में स्थित 'र' का लोपः १-१७७ से 'दु' का लोप; १-२६० से दोनों 'श' कारों के स्थान पर कर से दो 'स' कारों की प्राप्ति: १-१० से प्रात प्रथम 'स' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे'ई' रचर की प्राप्ति होने से लोप सत्पश्चात् शेष हलन्त 'स्' में आगे रहो हुई 'ई' म्बर को संधि और ३-२ से श्यमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर तिमसीसी रूप मिस हो जाता है।
निघासः + उत् + वासः-निश्वासोच. वासी संकृत द्विवचनांत रूप है । इसका प्राकृत रूप (द्विवचन का अभाव होम से} बहुवचनांत रूप-नोसासो + ऊसासी = नोसासूसासा होता है । इसमें सूत्र-संख्पा-१-१३ से 'निः' में स्थित विसर्ग के स्थानीय रूप ' का लोप; १-१३ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष 'नि' में रियत हुस्त्र स्वर '' की वीर्घ प्राप्ति: १-२६० से श' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति; २-७९ से 'व' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभषित के एक वचन में अकारान्स पुल्लिग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होने से प्रथम पद 'नोसासो' की प्राप्ति द्वितीय पद में १-११ की वृत्ति से 'उत्' में स्मित हलन्त 'त' का लोप; १-४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष हस्व स्वर “उ' के स्थान पर दीर्थ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-७९ में 'व्' का लोप; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होने से द्वितीय पर 'ऊसासो को प्राप्ति१-१० से प्रथम पद 'नोसासों' के अन्य व्यञ्जन 'सो' में स्थित 'ओ' स्वर के आगे 'ऊसासो' का 'क' स्वर रहने से लोप; तत्पश्चात् शोष हलन्त व्यञ्जन 'स' में 'ऊ' स्वर की संधि संयोजना; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहु वचन की प्राप्ति तदनुसार ३-४ से प्राप्त रूप 'नोप्सासूसास' में प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत-प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप और ३-१२ में प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जल' के कारण से अन्त्य हुस्व स्वर 'अ' पर वीर्ष स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर समासात्मक नीसासूसासा रूप सिद्ध हो जाता है॥ १-१०॥