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करता हुमा विचरण करने लगा । एक दिन उन सातों मुनियों ने परस्पर विचारविमर्श करने के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की कि वे सब साथ-साथ एक ही प्रकार का तपश्चरण करेंगे। प्रतिज्ञानसार वे सब उपवासादि समान तप करने लगे। पर मुनि महावल ने इस (मागे बताये जाने वाले) कारण से स्त्री-नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन कर लिया।
यदि महाबल अणगार के वे छः मित्र मुनि एक उपवास की तपस्या करते तो महाबल दो उपवास की। यदि वे दो उपवास, तीन उपवास, चार, अथवा पांच उपवास की तपस्या करते तो मुनि महाबल उनसे अधिक क्रमशः तीन, चार, पांच और छः उपवासों की तपश्चर्या करता।
__ इस प्रकार मूल आगम में मुनि महाबल द्वारा प्रथमत: स्त्रीनाम-गोत्र-कर्म का बन्ध किये जाने का उल्लेख किया गया है। वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है :
___"तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान्, स्त्रोनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धी प्रत्ययत्वात् ।"3
अर्थात् - उस समय महाबल मुनि ने मिथ्यात्व अथवा सास्वादन गुणस्थान का अनुभव किया, क्योंकि मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी माया के कारण ही वस्तुतः स्त्रीनामकर्म का बन्ध होता है।
महाबल अणगार बनने से पूर्व अधिनायक था और उसके छहों मित्र उसके अधीनस्थ । उपर्युक्त प्रतिज्ञा को भंग करने के पीछे उसका यही उद्देश्य हो सकता है कि इन छहों से विशिष्ट प्रकार का तपश्चरण कर के वह अागामी भव में भी उन छहों की अपेक्षा अधिकाधिक ऐश्वर्यादि प्राप्त करे। इस अान्तरिक आकांक्षा की पूर्ति हेतु महाबल ने अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत माया-छलछद्मपूर्वक उन छहों मनियों में विशिष्ट तप किया। शंका, अाकांक्षा, वितिगिच्छा, परपापंड-प्रशंसा पौर परपापंड-संस्तव - ये सम्यक्त व के पांच दोष हैं। महावल के अन्तर में अपने मित्रों की अपेक्षा विशिष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति हेतु आकांक्षा उत्पन्न हई और उसके फलस्वरूप उसका सम्यक्त्त्व दूषित हो गया । मैं इन छहों से बड़ा हूँ और आगे भी बड़ा बना रहूँ - इस अभिमान ने महाबल के अन्तर में माया को जन्म दिया। माया स्त्रीनाम-कर्म की जननी है, अत: महाबल ने स्त्रीनामकर्म का अर्थात् स्त्रीवेद का बंध किया। 'गहना कर्मणो गति' - कर्मगति विचित्र है। अपने लिये उपयुक्त अवकाश पाते ही कर्म अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं । यहां
''पडिमरिणता बहूहि च उत्थ जाव विहरंति, तएणं से महब्बले प्रणगारे इमेणं कारगरणं इत्थिरणामगोयं कम्मं निव्वत्तिम् ।।मू.४।। .
ज्ञाताधर्मकथांग मूत्र (श्री धामीलाल जी म.) प्र. ८] २ वही, मूत्र ५ का पूर्व भाग ३ जाताधर्मकथांग सूत्र-वृत्ति
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